अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से, कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से। निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर, वन्यकुसुम-सा खिला जग की आँखों से दूर। alag nagar ki kolahal se, alag puri purjan se... kathin saadhna me udyogi, laga hua tan-man se... niz saadhna me nitrat sada, niz karmathta me choor... wanya kusum sa khila KARNA, jag ki aankho se door... पूछो मेरी जाति, शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से, रवि-समाज दीपित ललाट से, और कवच-कुण्डल से। पढो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प्रकाश, मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास। puchho meri jaati, shakti ho to bhujbal se... ravi samaan deepit lalat se, aur kawach kundal se.... padho use jo jhalak raha hai mujhme tez prakash... mere rom-rom me ankit hai mera itihas... मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे, पूछेगा जग; किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे. जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा. main unka aadarsh, kahi vyatha na khol sakenge... puchhega jag,...
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