एक कोने में ग़ज़ल की महफ़िल, एक कोने में मयखाना हो...
गज़ल : मयखाना
लहरा के झूम-झूम के ला, मुस्कुरा के ला
फूलों के रस में चाँद की किरणे मिला के ला...
कहते हैं उम्रे-ए-रफ्ता कभी लौटती नहीं
जा मयकदे से मेरी जवानी उठा के ला...
एक ऐसा घर चाहिए मुझको, जिसकी फ़ज़ा (फिजा) मस्ताना हो
एक कोने में ग़ज़ल की महफ़िल, एक कोने में मयखाना हो...
ऐसा घर जिसके दरवाज़े, बंद न हो इंसानों पर
शेख-ओ-बेहाल मन, रिन्दों शराबी, सबका आना-जाना हो...
एक ऐसा घर चाहिए मुझको...
एक तख्ती अंगूर के पानी से, लिख कर दर पर रख दो
इस घर में वो आये, जिसको सुबह तलक न जाना हो...
एक ऐसा घर चाहिए मुझको...
जो मयखार यहाँ आता है, अपना मेहमां होता है,
वो बाज़ार में जा के पी ले, जिसको दाम चुकाना हो...
एक ऐसा घर चाहिए मुझको...
प्यासे हैं होठों से कहना, कितना है आसान अल्फा....
मुस्किल उस दम आती है, जब आँखों से समझाना हो,
एक ऐसा घर चाहिए मुझको...
एक ऐसा घर चाहिए मुझको, जिसकी फ़ज़ा मस्ताना हो
एक कोने में ग़ज़ल की महफ़िल, एक कोने में मयखाना हो....
एक कोने में ग़ज़ल की महफ़िल, एक कोने में मयखाना हो......
भरत अल्फा
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