संस्कृत के 17 श्लोक

बच्चों का मार्गदर्शन करने लिए संस्कृत के 17 श्लोक व उनके अर्थ।

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डॉ राजीव कुमार झा    
अध्यापक (संस्कृत विभाग)    
डी ए वी पब्लिक स्कूल, झंझारपुर    

संस्कृत के श्लोकों में गूढ़ ज्ञान छुपा हुआ है। ये श्लोक ही हैं, जो जीवन के हर पड़ाव पर जीने का सही तरीका सिखाते हैं। ये बच्चों के लिए मार्गदर्शक के रूप में भी कार्य करते हैं। इसी वजह से कदाचित बचपन से ही बच्चों को श्लोक का अध्ययन कराया जाए, तो उनके बचपन व विद्यार्थी जीवन पर सकारात्मक असर दिख सकता है। संस्कृत के कई श्लोक तो जीवन की समस्याओं से निपटने और परिस्थितियों को संभालने का तरीका भी बताते हैं। यहां दिए गए 17 श्लोक बच्चों के विकास और ज्ञान को बढ़ाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। 

आइए, इन ज्ञानवर्धक श्लोकों के बारे में विस्तार से जानते हैं।

1. काम क्रोध अरु स्वाद, लोभ श्रृंगारहिं कौतुकहिं।
    अति सेवन निद्राहि, विद्यार्थी आठौ तजै।।

भावार्थ : इस श्लोक के माध्यम से विद्यार्थियों को 8 चीजों से बचने के लिए कहा गया है। काम, क्रोध, स्वाद, लोभ, श्रृंगार, मनोरंजन, अधिक भोजन और नींद सभी को त्यागना जरूरी है।

2. विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
    पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्म: ततः सुखम्।।

भावार्थ : विद्या से विनय अर्थात विवेक व नम्रता मिलती है, विनय से मनुष्य को पात्रता मिलती हैै अर्थात पद की योग्यता मिलती है। वहीं, पात्रता व्यक्ति को धन देती है। धन फिर धर्म की ओर व्यक्ति को बढ़ाता और धर्म से सुख मिलता है। इसका मतलब यह हुआ कि जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए विद्या ही मूल आधार है।

3. गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः।
    गुरुः साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।

भावार्थ : गुरु ही ब्रह्मा हैं, जो सृष्टि निर्माता की तरह परिवर्तन के चक्र को चलाते हैं। गुरु ही विष्णु अर्थात रक्षक हैं। गुरु ही शिव यानी विध्वंसक हैं, जो कष्टों से दूर कर मार्गदर्शन करते हैं। गुरु ही धरती पर साक्षात् परम ब्रह्मा के रूप में अवतरित हैं। इसलिए, गुरु को सादर प्रणाम।

4. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
    चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।

भावार्थ : बड़े-बुजुर्गों का अभिवादन अर्थात नमस्कार करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वालों की 4 चीजें हमेशा बढ़ती हैं। ये 4 चीजें हैं: आयु, विद्या, यश और बल। इसी वजह से हमेशा वृद्ध और स्वयं से बड़े लोगों की सेवा व सम्मान करना चाहिए।

5. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
    न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

भावार्थ : महज इच्छा रखने भर से कोई कार्य पूरा नहीं होता, बल्कि उसके लिए उद्यम अर्थात मेहनत करना जरूरी होता है। ठीक उसी तरह जैसे शेर के मुंह में सोते हुए हिरण खुद-ब-खुद नहीं आ जाता, बल्कि उसे शिकार करने के लिए परिश्रम करना होता है।

6. यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
    चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेकरूपता।।

भावार्थ : साधु यानी अच्छे व्यक्ति के मन में जो होता है, वो वही बात करता है। वचन में जो होता है यानी जैसा बोलता है, वैसा ही करता है। इनके मन, वचन और कर्म में हमेशा ही एकरूपता व समानता होती है। इसी को अच्छे व्यक्ति की पहचान माना जाता है।

7. न चौरहार्यं न राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
    व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।

भावार्थ : एक ऐसा धन जिसे न चोर चुराकर ले जा सकता है, न ही राजा छीन सकता है, जिसका न भाइयों में बंटवार हो सकता है, जिसे न संभालना मुश्किल व भारी होता है और जो अधिक खर्च करने पर बढ़ता है, वो विद्या है। यह सभी धनों में से सर्वश्रेष्ठ धन है।

8. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
    निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता।।

भावार्थ : 6 अवगुण मनुष्य के लिए पतन की वजह बनते हैं। ये अवगुण हैं, नींद, तन्द्रा (थकान), भय, गुस्सा, आलस्य और कार्य को टालने की आदत


9. काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
    अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।

भावार्थ : एक विद्यार्थी के पांच लक्षण होते हैं। कौवे की तरह हमेशा कुछ नया जानने की प्रबल इच्छा। बगुले की तरह ध्यान व एक्राग्रता। कुत्ते की जैसी नींद, जो एक आहट में भी खुल जाए। अल्पाहारी मतलब आवश्यकतानुसार खाने वाला और गृह-त्यागी, गृह अर्थात घर को त्याग कर, अध्ययन के लिए कहीं दूर चले जाना।

10. अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
       परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

भावार्थ : सभी 18 पुराणों में महर्षि वेदव्यास जी ने दो विशेष बातें कही हैं। पहली बात तो यह है कि परोपकार करना पुण्य है और दूसरी बात में उन्होंने पाप का वर्णन किया है, जो लोगों को दुख देने से संबंधित है।

11. देवो रुष्टे गुरुस्त्राता गुरो रुष्टे न कश्चन:।
      गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता गुरुस्त्राता न संशयः।।

भावार्थ : देवताओं के रूठ जाने पर गुरु रक्षा करते हैं, किंतु गुरु रूठ जाए, तो उस व्यक्ति के पास कोई नहीं होता। गुरु ही रक्षा करते हैं, गुरु ही रक्षा करते हैं और सिर्फ गुरु ही रक्षा करते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। इसका मतलब यह है कि अगर पूरा विश्व व भाग्य भी किसी से विमुख हो जाए, तो गुरु की कृपा से सब ठीक हो सकता है। गुरु सभी मुश्किलों को दूर कर सकते हैं, लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए, तो कोई अन्य व्यक्ति मदद नहीं कर सकता।

12. रूप यौवन सम्पन्नाः विशाल कुल सम्भवाः।
      विद्याहीनाः न शोभन्ते निर्गन्धाः इव किंशुकाः।।

भावार्थ : अच्छा रूप, युवावस्था और उच्च कुल में जन्म लेने मात्र से कुछ नहीं होता। अगर व्यक्ति विद्याहीन हो, तो वह पलाश के फूल के समान हो जाता है, जो दिखता तो सुंदर है, लेकिन उसमें कोई खुशबू नहीं होती। अर्थात मनुष्य की असली खुशबू व पहचान विद्या व ज्ञान ही है।

13. अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
      उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

भावार्थ : छोटे चित यानी छोटे मन वाले लोग हमेशा यही गिनते रहते हैं कि यह मेरा है, वह उसका है, लेकिन उदारचित अर्थात बड़े मन वाले लोग संपूर्ण धरती को अपने परिवार के समान मानते हैं।

14. मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं मुखे।
      हठी चैव विषादी च परोक्तं नैव मन्यते।।

भावार्थ : इस श्लोक में कहा गया है कि मूर्खों की पांच पहचान होती हैं। सबसे पहला अहंकारी होना, दूसरा हमेशा कड़वी बात करना, तीसरी पहचान जिद्दी होना, चौथा हर समय बुरी-सी शक्ल बनाए रखना और पांचवां दूसरों का कहना न मानना। श्लोक इन सभी पांच चीजों से बचने की प्रेरणा देता है।

15. अनादरो विलम्बश्च वै मुख्यम निष्ठुर वचनम।
       पश्चतपश्च पञ्चापि दानस्य दूषणानि च।।

भावार्थ : अपमान व अनादर के भाव से दान देना, देर से दान देना, मुंह फेरकर दान देना, कठोर व कटु वचन बोलकर दान देना और दान देने के बाद पछतावा करना। ये सभी पांच बातें दान को पूरी तरह दूषित कर देती हैं।

16. सुलभा: पुरुषा: राजन्‌ सततं प्रियवादिन:।
      अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।।

भावार्थ : हमेशा प्रिय और मन को अच्छा लगने वाले बोल बोलने वाले लोग आसानी से मिल जाते हैं, लेकिन जो आपके हित के बारे में बोले और अप्रिय वचन बोल व सुन सके, ऐसे लोग मिलना दुर्लभ है।

17. दुर्जन: परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोऽ पिसन्।
      मणिना भूषितो सर्प: किमसौ न भयंकर:।।

भावार्थ : दुर्जन अर्थात दुष्ट लोग भी अगर बुद्धिमान हों और विद्या प्राप्त कर लें, तो भी उनका परित्याग कर देना चाहिए। जैसे मणि युक्त सांप भी भयंकर होता है। इसका मतलब यह हुआ कि दुष्ट लोग कितने भी बुद्धिमान क्योंं न हों, उनकी संगत नहीं करनी चाहिए।

•••

ये थे संस्कृत के ज्ञानवर्धक 17 श्लोक।
अगर आप प्रतिदिन इनमें से एक श्लोक अपने बच्चे को सुनाएं और उसका अर्थ समझाएं, तो वो भविष्य में अच्छे इंसान बन सकते हैं। वह खुद से सही और गलत के बीच अंतर समझने लगेंगे। ऐसे बच्चे ही आगे चलकर आदर्श समाज का निर्माण करते हैं। तो बस आज से ही समय-समय पर अपने बच्चों को इन संस्कृत के श्लोक का अभ्यास कराते रहें और उन्हें सही रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करें।
श्लोक 14 को समझना अतिआवश्यक है।
धन्यवाद




Comments

  1. अदभुत, इसे जिंदगी में उतारने की जरूरत है।

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