रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 10)

 

सप्तम सर्ग (भाग 10)

 

'वृथा है पूछना किसने किया क्या,

जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या !

सुयोधन था खडा कल तक जहां पर,

न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?'

 

'उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?

किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?

गिनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं,

जगद्गुरु आपको हम मानते है ।'

 

'शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन,

हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन,

नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था ।

हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था ।'

 

'हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे,

गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे,

नहीं वह कृत्य नरता से रहित था,

पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था ।'

 

'कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं,

नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं ?

कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर,

महाभट द्रोण को छल से निहत कर,'

 

'पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है,

चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं ।

रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को ?

उठा मस्तक, गरज कर बोलने को ?'

 

'वृथा है पूछना, था दोष किसका ?

खुला पहले गरल का कोष किसका ?

जहर अब तो सभी का खुल रहा है,

हलाहल से हलाहल धुल रहा है ।'

 

जहर की कीच में ही आ गये जब,

कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब,

दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में,

अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?'

 

'सुयोधन को मिले जो फल किये का,

कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का,

मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं,

विकट जिस वासना में जल रहे हैं,'

 

'अभी पातक बहुत करवायेगी वह,

उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह ।

न जानें, वे इसी विष से जलेंगे,

कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे ।'

 

'सुयोधन पूत या अपवित्र ही था,

प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था ।

किया मैंने वही, सत्कर्म था जो,

निभाया मित्रता का धर्म था जो ।'

 

'नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है,

कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है;

अभी भी शुभ्र उर की चेतना है,

अगर है, तो यही बस, वेदना है ।'

 

'वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?

समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?

न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं,

लिये यह दाह मन में जा रहा हूं ।'

 

'विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को,

शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को ।

अभय हो बेधता जा अंग अरि का,

द्विधा क्या, प्राप्त है जब संग हरि का !'

 

'मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं,

गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं ।

भले ही लील ले इस काठ को तू,

न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू ।'

 

'महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है;

तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके;

जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें;

हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है ।'

 

'रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से;

हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो;

न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको;

गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है ।'


                             रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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