रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 8)

पंचम सर्ग (भाग 8)


माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया,

हो उठी कण्टकित पुलक कर्ण की काया।

संजीवन-सी छू गयी चीज कुछ तन में,

बह चला स्निग्ध प्रस्वण कहीं से मन में।

 

पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,

भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।

फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,

"मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।

 

पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,

माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।

अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,

पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।

 

"की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,

जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?

लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,

बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।

 

केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,

सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।

छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,

यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।

 

"विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,

बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।

कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,

अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।

 

"आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,

रण में खुलकर मारने और मरने की।

इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,

जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।

 

"अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?

क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?

मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?

सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।

 

"तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,

पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?

दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,

पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?

 

"मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,

बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।

छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,

तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?

 

"पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,

पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।

अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,

पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।"

 

कुन्ती बोली, "रे हठी, दिया क्या तू ने ?

निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?

बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,

रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।

 

"पाकर न एक को, और एक को खोकर,

मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।"

कह उठा कर्ण, "छह और चार को भूलो,

माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।

 

"जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी,

लेकिन होगी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।

रण में कट मर कर जो भी हानि सहेंगे,

पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।

 

"कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से,

या मिली वीरगति मुझे पार्थ के कर से,

तुम इसी तरह गोदी की धनी रहोगी,

पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहोगी।

 

"पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,

वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,

मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा,

जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।

 

"जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,

जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,

यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं

विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।

 

"सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,

पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?

उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँगा ?

है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा ?

 

"हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में,

वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,

राधेय न कुरूपति का सह-जेता होगा,

वह पुनः निःस्व दलितों का नेता होगा।

 

                रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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