रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 6)

 

पंचम सर्ग (भाग 6)

 

"है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,

मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का।

दी बिता आयु सारी कुलहीन कहा कर,

क्या पाऊँगा अब उसे आज अपना कर ?

 

"यद्यपि जीवन की कथा कलंकमयी है,

मेरे समीप लेकिन, वह नहीं नयी है

जो कुछ तुमने है कहा बड़े ही दुख से,

सुन उसे चुका हूँ मैं केशव के मुख से।

 

"जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है,

जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है।

अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा,

सौभाग्य किन्तु, जग पड़ा अचानक मेरा।

 

"मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है,

असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है।

जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कुलजन से,

फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।

 

"सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है,

हिल उठा सोच परिणाम तुम्हारा मन है।

अंक मे न तुम मुझको भरने आयी हो,

कुरूपति को कुछ दुर्बल करने आयी हो।

 

"अन्यथा, स्नेह की वेगमयी यह धारा,

तट को मरोड़, झकझोर, तोड़ कर कारा,

भुज बढ़ा खींचने मुझे न क्यों आयी थी ?

पहले क्यों यह वरदान नहीं लायी थी ?

 

"केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना,

इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना !

ले गये माँग कर, जनक कवच-कुण्डल को,

जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-बल को।

 

"लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ,

जैसे भी हो, सुत का सौभाग्य मनाओ,

दें छोड़़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को,

मैं नहीं छोड़ने वाला दुर्योधन को।

 

"कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,

आसान न होना उससे कभी उऋण है।

छल किया अगर, तो क्या जग मंे यश लूँगा ?

प्राण ही नहीं, तो उसे और क्या दूँगा ?

 

"हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ,

मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ।

अर्पित प्रसून के लिए न यों ललचाओ,

पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ाओ।"

 

राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के,

आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के।

कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हिलती थी,

कहने को कोई बात नहीं मिलती थी।

 

अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर,

अंजन उँड़ेल सारे जग को नहला कर,

साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे,

थी घूम रही तिमिरांचल निशा पसारे।

 

थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था,

कुंजों में अब बोलता न कोई खग था,

झिल्ली अपना स्वर कभी-कभी भरती थी,

जल में जब-तब मछली छप-छप करती थी।

 

इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,

थे खड़े शिलावत् मूक, भाग्य के मारे।

था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,

क्यों उबल पड़ा असमय विष कुटिल वचन में ?

 

क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी,

कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।

आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,

"आयी न वेदी पर का मैं फूल उठाने।

 

"पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को,

थी खोज रही मैं तो अपने ही तन को।

पर, समझ गयी, वह मुझको नहीं मिलेगा,

बिछुड़ी डाली पर कुसुम न आन खिलेगा।

 

"तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ?

दूँगी आगे क्या भला और उत्तर मैं ?

जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,

मेटूँगी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?

 

बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,

मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।

मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटिल, हत्यारी,

धरती पर होगी कौन दूसरी नारी ?

 

"तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,

मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।

यश ओढ़ जगत् को तो छलती आयी हूँ

पर, सदा हृदय-तल में जलती आयी हूँ।


               रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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