रश्मिरथी : चतुर्थ सर्ग (भाग 6)

 

चतुर्थ सर्ग (भाग 6)

 

'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?

मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,

देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,

दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!

 

'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,

एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है।

स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,

जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है।

 

'वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,

नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है।

वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में,

बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में।

 

'वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,

दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये।

पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है,

बल से अंधड़ को धकेल वह आगे चल सकता है।

 

'वह करतब है यह कि युद्ध मे मारो और मरो तुम,

पर कुपंथ में कभी जीत के लिये न पाँव धरो तुम।

वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,

विजय-तिलक के लिए करों मे कालिख पर, न लगाओ।

 

'देवराज! छल, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ,

मैं केवल आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,

जिन्हें नही अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को,

धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को।

 

'मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा,

'नीचवंशजन्मा' कहकर जिनको जग धिक्कारेगा।

जो समाज के विषम वह्नि में चारों ओर जलेंगे,

पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे।

 

'मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,

पूछेगा जग; किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे।

जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,

मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।

 

'मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायेंगे,

निज चरित्र-बल से समाज मे पद-विशिष्ट पायेंगे,

सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी उन्हें देख नत होगा,

धर्म हेतु धन-धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा।

 

'श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेंगे,

सुख क लिए पाप से जो नर कभी न सन्धि करेंगे,

कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना,

जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना।

 

'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,

बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,

पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,

देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ।

 

'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,

कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की।

हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,

अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का।

 

'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,

विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है।

मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,

पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं।


         रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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