रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 4)

 

पंचम सर्ग (भाग 4)

 

रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,

इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,

"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,

माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"

 

यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,

हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।

मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,

वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।

 

डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,

कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।

राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,

"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

 

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,

माता के तन का मल, अपूत है वह तो।

तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,

अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो।

 

"मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ

सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।

ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?

मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?

 

"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ

मन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।

हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,

किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।

 

"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,

धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;

माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,

पय-पान कराती उर से लगा कर।

 

"मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,

दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।

पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,

पय का पहला आहार न दे पायीं तुम।

 

"उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में,

तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।

मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,

रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ?

 

"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?

जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।

पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,

असली माता के पास भाग्य ने भेजा।

 

"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,

आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,

तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,

आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।

 

"अपना खोया संसार न तुम पाओगी,

राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।

छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,

पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?

 

"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,

तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।

तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,

उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।

 

"उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,

तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।

पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,

कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।

 

"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,

उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।

अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?

माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?

 

"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,

ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।

जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,

चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।

 

"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,

या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !

पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,

मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,

 

"अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,

भुजबल को मैंने सदा भाग्य कर जाना।

बाधाओं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर,

पाया सब-कुछ मैंने पौरूष को पाकर।


             रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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