रश्मिरथी : चतुर्थ सर्ग (भाग 3)
चतुर्थ सर्ग (भाग 3)
हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को।
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे।
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला।
कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने
आओ,
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज
आदेश सूनाओ।
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।
'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन,
धाम या धन दूँ?
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र
जीवन दूँ?
मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।
'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर।
'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?
'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की
गदगद वाणी,
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास
अनेक नरों का।
'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?
पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?
मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ।
गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी
सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी।
'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,
प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं।
आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,
कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है।
'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं।
सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं।
'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय,
आदर पाएगा।
स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा।
किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे,
कितना पाता है,
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'
सम्पूर्ण रश्मिरथी पढने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये.
Comments
Post a Comment
Hello! Welcome to Alpha's SHOWSTYLE. Give your feedback about this content...