रश्मिरथी (प्रथम सर्ग) भाग 2

 

(प्रथम सर्ग) भाग 2


अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी- पुरजन से,

कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से। 

निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर, 

वन्यकुसुम-सा खिला कर्णजग की आँखों से दूर। 


नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,

अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में। 

समझे कौन रहस्य प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल, 

गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल। 



जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है? 

युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है? 

पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग, 

फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।  


रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे, 

बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरास साधे। 

कहता हुआ, 'तालियों से क्या रहा गर्व में फूल? 

अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।' 


'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ, 

चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ। 

आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार, 

फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।' 


इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की, 

सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की। 

मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार, 

गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।


सम्पूर्ण  रश्मिरथी पढने के लिए क्लिक कीजिये.


रचना : रामधारी सिंह दिनकर



सम्पूर्ण  रश्मिरथी पढने के लिए क्लिक कीजिये.

Comments

Read More

मैं हवा हूँ, कहाँ वतन मेरा...

सामा चकेवा :: मिथिलांचल

आरम्भ है प्रचंड बोले मस्तकों की झुंड आज जंग की घड़ी की तुम गुहार दो,...

घायल सैनिक का पत्र - अपने परिवार के नाम...( कारगिल युद्ध )

आलसी आदमी

जोश में होश खो जाना, जवानी की पहचान है...

क्या तुझपे नज़्म लिखूँ

लोग कहते हैं मैं शराबी हूँ.....

Rashmirathi - Ramdhari singh 'dinkar'... statements of Karna....

होठों पर गंगा हो, हाथो में तिरंगा हो....