रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 6)

 

सप्तम सर्ग (भाग 6)

 

है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण,

भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन ।

थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर,

ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर ।

 

अहा ! यह युग्म दो अद्भुत नरों का,

महा मदमत्त मानव- कुंजरों का;

नृगुण के मूर्तिमय अवतार ये दो,

मनुज-कुल के सुभग श्रृंगार ये दो।

 

परस्पर हो कहीं यदि एक पाते,

ग्रहण कर शील की यदि टेक पाते,

मनुजता को न क्या उत्थान मिलता ?

अनूठा क्या नहीं वरदान मिलता ?

 

मनुज की जाति का पर शाप है यह,

अभी बाकी हमारा पाप है यह,

बड़े जो भी कुसुम कुछ फूलते हैं,

अहँकृति में भ्रमित हो भूलते हैं ।

 

नहीं हिलमिल विपिन को प्यार करते,

झगड़ कर विश्व का संहार करते ।

जगत को डाल कर नि:शेष दुख में,

शरण पाते स्वयं भी काल-मुख में ।

 

चलेगी यह जहर की क्रान्ति कबतक ?

रहेगी शक्ति-वंचित शांति कबतक ?

मनुज मनुजत्व से कबतक लड़ेगा ?

अनल वीरत्व से कबतक झड़ेगा ?

 

विकृति जो प्राण में अंगार भरती,

हमें रण के लिए लाचार करती,

घटेगी तीव्र उसका दाह कब तक ?

मिलेगी अन्य उसको राह कब तक ?

 

हलाहल का शमन हम खोजते हैं,

मगर, शायद, विमन हम खोजते हैं,

बुझाते है दिवस में जो जहर हम,

जगाते फूंक उसको रात भर हम ।

 

किया कुंचित, विवेचन व्यस्त नर का,

हृदय शत भीति से संत्रस्त नर का ।

महाभारत मही पर चल रहा है,

भुवन का भाग्य रण में जल रहा है ।

 

चल रहा महाभारत का रण,

जल रहा धरित्री का सुहाग,

फट कुरुक्षेत्र में खेल रही

नर के भीतर की कुटिल आग ।

बाजियों-गजों की लोथों में

गिर रहे मनुज के छिन्न अंग,

बह रहा चतुष्पद और द्विपद

का रुधिर मिश्र हो एक संग ।

 

गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर-से

लिये रक्त-रंजित शरीर,

थे जूझ रहे कौन्तेय-कर्ण

क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर ।

दोनों रणकृशल धनुर्धर नर,

दोनों समबल, दोनों समर्थ,

दोनों पर दोनों की अमोघ

थी विशिख-वृष्टि हो रही व्यर्थ ।

 

इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग,

तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङग,

कहता कि 'कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,

जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं ।

 

'बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे,

इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे ।

कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूंगा,

तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूंगा ।'

 

राधेय जरा हंसकर बोला, 'रे कुटिल! बात क्या कहता है ?

जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है ।

उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूं ?

जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुध्द करूं ?'


                          रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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