रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 3)

 

सप्तम सर्ग (भाग 3)

 

तपस्याओ ! उठो, रण में गलो तुम,

नई एकघ्नियां वन कर ढलो तुम,

अरी ओ सिद्धियों की आग, आओ;

प्रलय का तेज बन मुझमें समाओ ।

 

कहाँ हो पुण्य ? बाँहों में भरो तुम,

अरी व्रत-साधने ! आकार लो तुम ।

हमारे योग की पावन शिखाओ,

समर में आज मेरे साथ आओ ।

 

उगी हों ज्योतियां यदि दान से भी,

मनुज-निष्ठा, दलित-कल्याण से भी,

चलें वे भी हमारे साथ होकर,

पराक्रम-शौर्य की ज्वाला संजो कर ।

 

हृदय से पूजनीया मान करके,

बड़ी ही भक्ति से सम्मान करके,

सुवामा-जाति को सुख दे सका हूँ,

अगर आशीष उनसे ले सका हूँ,

 

समर में तो हमारा वर्म हो वह,

सहायक आज ही सत्कर्म हो वह ।

सहारा, माँगता हूँ पुण्य-बल का,

उजागर धर्म का, निष्ठा अचल का।

 

प्रवंचित हूँ, नियति की दृष्टि में दोषी बड़ा हूँ,

विधाता से किये विद्रोह जीवन में खड़ा हूँ ।

स्वयं भगवान मेरे शत्रु को ले चल रहे हैं,

अनेकों भाँति से गोविन्द मुझको छल रहे हैं।

 

मगर, राधेय का स्यन्दन नहीं तब भी रुकेगा,

नहीं गोविन्द को भी युध्द में मस्तक झुकेगा,

बताऊँगा उन्हें मैं आज, नर का धर्म क्या है,

समर कहते किसे हैं और जय का मर्म क्या है ।

 

बचा कर पाँव धरना, थाहते चलना समर को,

'बनाना ग्रास अपनी मृत्यु का योद्धा अपर को,

पुकारे शत्रु तो छिप व्यूह में प्रच्छन्न रहना,

सभी के सामने ललकार को मन मार सहना ।

 

प्रकट होना विपद के बीच में प्रतिवीर हो जब,

धनुष ढीला, शिथिल उसका जरा कुछ तीर हो जब ।

कहाँ का धर्म ? कैसी भर्त्सना की बात है यह ?

नहीं यह वीरता, कौटिल्य का अपघात है यह ।

 

समझ में कुछ न आता, कृष्ण क्या सिखला रहे हैं,

जगत को कौन नूतन पुण्य-पथ दिखला रहे हैं ।

हुआ वध द्रोण का कल जिस तरह वह धर्म था क्या ?

समर्थन-योग्य केशव के लिए वह कर्म था क्या ?

 

यही धर्मिष्ठता ? नय-नीति का पालन यही है ?

मनुज मलपुंज के मालिन्य का क्षालन यही है ?

यही कुछ देखकर संसार क्या आगे बढ़ेगा ?

जहाँ गोविन्द हैं, उस श्रृंग के ऊपर चढ़ेगा ?

 

करें भगवान जो चाहें, उन्हें सब क्वा क्षमा है,

मगर क्या वज्र का विस्फोट छींटों से थमा है ?

चलें वे बुद्धि की ही चाल, मैं बल से चलूंगा ?

न तो उनको, न होकर जिह्न अपने को छलूंगा ।

 

डिगाना घर्म क्या इस चार बित्त्रों की मही को ?

भुलाना क्या मरण के बादवाली जिन्दगी को ?

बसाना एक पुर क्या लाख जन्मों को जला कर !

मुकुट गढ़ना भला क्या पुण्य को रण में गला कर ?

 

नहीं राधेय सत्पथ छोड़ कर अघ-ओक लेगा,

विजय पाये न पाये, रश्मियों का लोक लेगा !

विजय-गुरु कृष्ण हों, गुरु किन्तु, मैं बलिदान का हूँ;

असीसें देह को वे, मैं निरन्तर प्राण का हूँ ।


                        रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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