रश्मिरथी : षष्ठ सर्ग (भाग 4)

 

षष्ठ सर्ग (भाग 4)

 

"अनुचर के दोष क्षमा करिये,

मस्तक पर वरद पाणि धरिये,

आखिरी मिलन की वेला है,

मन लगता बड़ा अकेला है।

मद-मोह त्यागने आया हूँ,

पद-धूलि माँगने आया हूँ।"

 

भीष्म ने खोल निज सजल नयन,

देखे कर्ण के आर्द्र लोचन

बढ़ खींच पास में ला करके,

छाती से उसे लगा करके,

बोले-"क्या तत्व विशेष बचा ?

बेटा, आँसू ही शेष बचा।

 

"मैं रहा रोकता ही क्षण-क्षण,

पर हाय, हठी यह दुर्योधन,

अंकुश विवेक का सह न सका,

मेरे कहने में रह न सका,

क्रोधान्ध, भ्रान्त, मद में विभोर,

ले ही आया संग्राम घोर।

 

"अब कहो, आज क्या होता है ?

किसका समाज यह रोता है ?

किसका गौरव, किसका सिंगार,

जल रहा पंक्ति के आर-पार ?

किसका वन-बाग़ उजड़ता है?

यह कौन मारता-मरता है ?

 

"फूटता द्रोह-दव का पावक,

हो जाता सकल समाज नरक,

सबका वैभव, सबका सुहाग,

जाती डकार यह कुटिल आग।

जब बन्धु विरोधी होते हैं,

सारे कुलवासी रोते हैं।

 

"इसलिए, पुत्र ! अब भी रूककर,

मन में सोचो, यह महासमर,

किस ओर तुम्हें ले जायेगा ?

फल अलभ कौन दे पायेगा ?

मानवता ही मिट जायेगी,

फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?

 

"ओ मेरे प्रतिद्वन्दी मानी !

निश्छल, पवित्र, गुणमय, ज्ञानी !

मेरे मुख से सुन परूष वचन,

तुम वृथा मलिन करते थे मन।

मैं नहीं निरा अवशंसी था,

मन-ही-मन बड़ा प्रशंसी था।

 

"सो भी इसलिए कि दुर्योधन,

पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,

मुझको न मानकर चलता था,

पग-पग पर रूठ मचलता था।

अन्यथा पुत्र ! तुमसे बढ़कर

मैं किसे मानता वीर प्रवर ?

 

"पार्थोपम रथी, धनुर्धारी,

केशव-समान रणभट भारी,

धर्मज्ञ, धीर, पावन-चरित्र

दीनों-दलितों के विहित मित्र,

अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे,

तुम मिले कौरवों को वैसे।

 

"पर हाय, वीरता का सम्बल,

रह जायेगा धनु ही केवल ?

या शान्ति हेतु शीतल, शुचि श्रम,

भी कभी करेंगे वीर परम ?

ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?

या लड़कर ही मर जायेंगे ?

 

"चल सके सुयोधन पर यदि वश,

बेटा ! लो जग में नया सुयश,

लड़ने से बढ़ यह काम करो,

आज ही बन्द संग्राम करो।

यदि इसे रोक तुम पाओगे,

जग के त्राता कहलाओगे।

 

"जा कहो वीर दुर्योधन से,

कर दूर द्वेष-विष को मन से,

वह मिल पाण्डवों से जाकर,

मरने दे मुझे शान्ति पाकर।

मेरा अन्तिम बलिदान रहे,

सुख से सारी सन्तान रहे।"


                    रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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