रश्मिरथी : चतुर्थ सर्ग (भाग 7)

 

चतुर्थ सर्ग (भाग 7)


'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा?

इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?

अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,

अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ।'

 

'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,

दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,

'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,

कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है।

 

'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा,

हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा।'

यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,

कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में।

 

चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे,

दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे।

सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,

'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में।

 

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,

देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला।

क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से।

ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से।

 

'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,

तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,

अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,

नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे।

 

मगर, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,

बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में।

झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं?

करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?

 

'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,

पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,

देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,

आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर।

 

'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,

माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं।

दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,

पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है

 

'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,

दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा।

मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,

वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा।

 

'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,

कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ।

आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,

दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी।

 

'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,

शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ।

घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,

हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा।

 

'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को,

जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को,

वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा,

आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा।

 

'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा,

काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा।

किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है,

हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मरा जाता है।


          रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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