रश्मिरथी : चतुर्थ सर्ग (भाग 8)

 

चतुर्थ सर्ग (भाग 8)

 

'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा

कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा।

त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है,

उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है।

 

'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में,

बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में।

दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे,

सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे।

 

'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है,

मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है।

'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है,

सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है।'

 

'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी,

तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी।

तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है,

इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है।

 

'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा,

काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा।

तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ,

उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ

 

'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो,

अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो।

मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो,

मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो

 

कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,

देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर?

बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो,

वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो

 

देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा,

निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा?

और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से?

अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से

 

धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है,

छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है।

उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा,

पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा।

 

'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,

मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है।

ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,

इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है।

 

'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा,

फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा।

अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो,

लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो।

 

'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये,

देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये।'

दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,

व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को।


           रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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