रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 7)

 

पंचम सर्ग (भाग 7)

 

"अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा,

त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा,

पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको

टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।

 

"वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा,

शिलाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,

ये दोनों ही सालते रहे हैं मुझको,

रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?

 

"लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,

निर्घोष सत्य का कब कोमल होता है !

धिक्कार नहीं तो मैं क्या और सुनुँगी ?

काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँगी ?

 

"धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही,

लेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।

थे अमीत बार अरमान हृदय में जागे,

धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आगे।

 

"पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर,

सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।

लेकिन, जब कुरूकुल पर विनाश छाया है,

आखिरी घड़ी ले प्रलय निकट आया है।

 

"तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,

आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।

सोचा कि आज भी अगर चूक जाऊँगी,

भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।

 

"इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,

सब कुछ सहने के लिए समुद्यत होकर,

आयी थी मैं गोपन रहस्य बतलाने,

सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।

 

"सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,

तेरे तन में किस कुल का दिव्य लहू है।

अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,

जा भूल द्वेष अथवा अनुजों से लड़ तू।

 

"कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में,

हाँ, एक ललक रह गयी छिन्न जीवन में,

थे मिले लाल छह-छह पर, वाम विधाता,

रह गयी सदा पाँच ही सुतों की माता।

 

"अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी,

पर, आस नहीं अपने बल की लायी थी।

था एक भरोसा यही कि तू दानी है,

अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।

 

"थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली,

लौटता न कोई कभी द्वार से खाली।

पर, मैं अभागिनी ही अंचल फैला कर,

जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।

 

"फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,

संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।

अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर लूँ,

आखिरी बार तेरा आलिंगन कर लूँ।

 

"ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में,

जो क्षरी फूट कर सूख गया था तन में,

वह लहर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,

वह रहा हृदय के कूल-किनारे भर कर।

 

"कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी-

वह दीन, हीन, असहाय, ग्लानि की मारी !

सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,

तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।

 

"इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को,

मुझमें भुज खोले हुए दग्ध रमणी को,

छाती से सुत को लगा तनिक रोने दे,

जीवन में पहली बार धन्य होने दे।"


                रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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