रश्मिरथी : षष्ठ सर्ग (भाग 5)

 

षष्ठ सर्ग (भाग 5)

 

"हे पुरूष सिंह !" कर्ण ने कहा,

"अब और पन्थ क्या शेष रहा

सकंटापन्न जीवन समान,

है बीच सिन्धु में महायान;

इस पार शान्ति, उस पार विजय

अब क्या हो भला नया निश्चय ?

 

"जय मिले बिना विश्राम नहीं,

इस समय सन्धि का नाम नहीं,

आशिष दीजिये, विजय कर रण,

फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;

जलयान सिन्धु से तार सकूँ;

सबको मैं पार उतार सकूँ।

 

"कल तक था पथ शान्ति का सुगम,

पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,

अब उसे देख ललचाना क्या ?

पीछे को पाँव हठाना क्या ?

जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,

अरि-दल को गर्व दलेंगे हम।

 

"हे महाभाग, कुछ दिन जीकर,

देखिये और यह महासमर,

मुझको भी प्रलय मचाना है,

कुछ खेल नया दिखलाना है;

इस दम तो मुख मोडि़ये नहीं;

मेरी हिम्मत तोडि़ये नहीं।

 

करने दीजिये स्वव्रत पालन,

अपने महान् प्रतिभट से रण,

अर्जुन का शीश उड़ाना है,

कुरूपति का हृदय जुड़ाना है।

करने को पिता अमर मुझको,

है बुला रहा संगर मुझको।"

 

गांगेय निराशा में भर कर,

बोले-"तब हे नरवीर प्रवर !

जो भला लगे, वह काम करो,

जाओ, रण में लड़ नाम करो।

भगवान् शमित विष तूर्ण करें;

अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।"

 

भीष्म का चरण-वन्दन करके,

ऊपर सूर्य को नमन करके,

देवता वज्र-धनुधारी सा,

केसरी अभय मगचारी-सा,

राधेय समर की ओर चला,

करता गर्जन घनघोर चला।

 

पाकर प्रसन्न आलोक नया,

कौरव-सेना का शोक गया,

आशा की नवल तरंग उठी

जन-जन में नयी उमंग उठी,

मानों, बाणों का छोड़ शयन,

आ गये स्वयं गंगानन्दन।

 

सेना समग्र हुकांर उठी,

जय-जय राधेय !पुकार उठी,

उल्लास मुक्त हो छहर उठा,

रण-जलधि घोष में घहर उठा,

बज उठी समर-भेरी भीषण,

हो गया शुरू संग्राम गहन।

 

सागर-सा गर्जित, क्षुभित घोर,

विकराल दण्डधर-सा कठोर,

अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,

धनु पर चढ़ महामरण छूटा।

ऐसी पहली ही आग चली,

पाण्डव की सेना भाग चली।

 

झंझा की घोर झकोर चली,

डालों को तोड़-मरोड़ चली,

पेड़ों की जड़ टूटने लगी,

हिम्मत सब की छूटने लगी,

ऐसा प्रचण्ड तूफान उठा,

पर्वत का भी हिल प्राण उठा।

 

प्लावन का पा दुर्जय प्रहार,

जिस तरह काँपती है कगार,

या चक्रवात में यथा कीर्ण,

उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,

त्यों उठा काँप थर-थर अरिदल,

मच गयी बड़ी भीषण हलचल।

 

सब रथी व्यग्र बिललाते थे,

कोलाहल रोक न पाते थे।

सेना का यों बेहाल देख,

सामने उपस्थित काल देख,

गरजे अधीर हो मधुसूदन,

बोले पार्थ से निगूढ़ वचन।

 

"दे अचिर सैन्य का अभयदान,

अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान,

तू नहीं जानता है यह क्या ?

करता न शत्रु पर कर्ण दया ?

दाहक प्रचण्ड इसका बल है,

यह मनुज नहीं, कालानल है।

 

"बड़वानल, यम या कालपवन,

करते जब कभी कोप भीषण 

सारा सर्वस्व न लेते हैं,

उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।

पर, इसे क्रोध जब आता है;

कुछ भी न शेष रह पाता है।

 

बाणों का अप्रतिहत प्रहार,

अप्रतिम तेज, पौरूष अपार,

त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,

आ गया स्वयं सामने प्रलय,

तू इसे रोक भी पायेगा ?

या खड़ा मूक रह जायेगा।

 

यह महामत्त मानव-कुञ्जर,

कैसे अशंक हो रहा विचर,

कर को जिस ओर बढ़ाता है?

पथ उधर स्वयं बन जाता है।

तू नहीं शरासन तानेगा,

अंकुश किसका यह मानेगा ?

 

अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा,

शैथिल्य प्राण-घातक होगा,

उठ जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,

धर धनुष-बाण अपना कठोर।

तू नहीं जोश में आयेगा

आज ही समर चुक जायेगा।"

 

केशव का सिंह दहाड़ उठा,

मानों चिग्घार पहाड़ उठा।

बाणों की फिर लग गयी झड़ी,

भागती फौज हो गयी खड़ी।

जूझने लगे कौन्तेय-कर्ण,

ज्यों लड़े परस्पर दो सुपर्ण।

 

एक ही वृम्त के को कुड्मल, एक की कुक्षि के दो कुमार,

एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट, वीर, पर्वताकार।

बेधने परस्पर लगे सहज-सोदर शरीर में प्रखर बाण,

दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण।


                    रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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