रश्मिरथी : षष्ठ सर्ग (भाग 3)

 

षष्ठ सर्ग (भाग 3)

 

जिस प्रकार हम आज बेल-

बूटों के बीच खचित करके,

देते हैं रण को रम्य रूप 

विप्लवी उमंगों में भरके;

कहते, अनीतियों के विरूद्ध

जो युद्ध जगत में होता है,

वह नहीं ज़हर का कोष, अमृत का

बड़ा सलोना सोता है।

 

बस, इसी तरह, कहता होगा

द्वाभा-शासित द्वापर का नर,

निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु,

है महामोक्ष का द्वार समर।

सत्य ही, समुन्नति के पथ पर

चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध,

कहता है क्रान्ति उसे, जिसको

पहले कहता था धर्मयुद्ध।

 

सो, धर्मयुद्ध छिड़ गया, स्वर्ग

तक जाने के सोपान लगे,

सद्गतिकामी नर-वीर खड्ग से

लिपट गँवाने प्राण लगे।

छा गया तिमिर का सघन जाल,

मुँद गये मनुज के ज्ञान-नेत्र,

द्वाभा की गिरा पुकार उठी,

"जय धर्मक्षेत्र ! जय कुरूक्षेत्र !"

 

हाँ, धर्मक्षेत्र इसलिए कि बन्धन

पर अबन्ध की जीत हुई,

कत्र्तव्यज्ञान पीछे छूटा,

आगे मानव की प्रीत हुई।

प्रेमातिरेक में केशव ने

प्रण भूल चक्र सन्धान किया,

भीष्म ने शत्रु को बड़े प्रेम से

अपना जीवन दान दिया।

 

गिरि का उदग्र गौरवाधार

गिर जाय श्रृंग ज्यों महाकार,

अथवा सूना कर आसमान

ज्यों गिरे टूट रवि भासमान,

कौरव-दल का कर तेज हरण

त्यों गिरे भीष्म आलोकवरण।

 

कुरूकुल का दीपित ताज गिरा,

थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा,

भूलूठित पितामह को विलोक,

छा गया समर में महाशोक।

कुरूपति ही धैर्य न खोता था,

अर्जुन का मन भी रोता था।

 

रो-धो कर तेज नया चमका,

दूसरा सूर्य सिर पर चमका,

कौरवी तेज दुर्जेय उठा,

रण करने को राधेय उठा,

सबके रक्षक गुरू आर्य हुए,

सेना-नायक आचार्य हुए।

 

राधेय, किन्तु जिनके कारण,

था अब तक किये मौन धारण,

उनका शुभ आशिष पाने को,

अपना सद्धर्म निभाने को,

वह शर-शय्या की ओर चला,

पग-पग हो विनय-विभोर चला।

 

छू भीष्मदेव के चरण युगल,

बोला वाणी राधेय सरल,

"हे तात ! आपका प्रोत्साहन,

पा सका नहीं जो लान्छित जन,

यह वही सामने आया है,

उपहार अश्रु का लाया है।

 

"आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ,

रण में चलकर कुछ काम करूँ,

देखूँ, है कौन प्रलय उतरा,

जिससे डगमग हो रही धरा।

कुरूपति को विजय दिलाऊँ मैं,

या स्वयं विरगति पाऊँ मैं।


                   रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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