रश्मिरथी : चतुर्थ सर्ग (भाग 5)

 

चतुर्थ सर्ग (भाग 5)

 

'क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,

छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं।

दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा लेने को,

था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को?

 

'केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा?

और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा?

फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,

जो भी हो, पर इस सुयोग को, हम क्यों अशुभ विचरें?

 

'अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा,

शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूँगा।

पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों?

कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?

 

'यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे,

व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे।

उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवाली,

और इधर मैं लडू लिये यह देह कवच से खाली।

 

'तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा?

इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा?

एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,

सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को।

 

'यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,

जहर पीला मृगपति को उस पर पौरुष दिखलाना है।

यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,

जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है।

 

'देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,

क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छल से?

हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,

सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है।

 

'और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है,

तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है।

कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,

और काट कर उसे, जगत मे कर्णजयी कहलाए।

 

'जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,

कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जायेगी मन में।

जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के बल से,

मुझे छोड़ रक्षित जन्मा था कौन कवच-कुंडल में?

 

'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,

कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ।

अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,

हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये।

 

'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,

जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था।

महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला?

किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही धकेला?

 

'जन्मा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,

परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,

द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया

बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया।

 

'और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जग में,

आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग मे।

ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था?

हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था?

 

'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,

नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ।

मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?

खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?

 

'और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है।

तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?

समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,

सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?

 

'जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,

उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का।

गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,

किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं।


         रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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