रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 9)
सप्तम सर्ग (भाग 9)
विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था,
खड़ा राधेय नि:सम्बल, विरथ था,
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे,
अनोखे धर्म का रण देखते थे ।
नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते ।
समय के योग्य धीरज को संजोकर,
कहा राधेय ने गम्भीर होकर ।
'नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो !
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो ।
फंसे रथचक्र को जब तक निकालूं,
धनुष धारण करूं, प्रहरण संभालूं,'
'रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम;
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम ।
नहीं अर्जुन ! शरण मैं मागंता हूं,
समर्थित धर्म से रण मागंता हूं ।'
'कलकिंत नाम मत अपना करो तुम,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम ।
विजय तन की घडी भर की दमक है,
इसी संसार तक उसकी चमक है ।'
'भुवन की जीत मिटती है भुवन में,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में ?
शरण केवल उजागर धर्म होगा,
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा ।'
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को ।
मगर, भगवान् किञ्चित भी न डोले,
कुपित हो वज्र-सी यह वात बोले _
'प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले !
बड़ी निष्ठा, बड़े सत्कर्म वाले !
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन,
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?'
'हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था,
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,
हंसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?'
'सभा में द्रौपदी की खींच लाके,
सुयोधन की उसे दासी बता के,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो,'
'नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था,
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था ।
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन,
हुए पाण्डव यती निष्काम जिस दिन,'
'चले वनवास को तब धर्म था वह,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह ।
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे
वे,
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे ।'
'बडे पापी हुए जो ताज मांगा,
किया अन्याय; अपना राज मांगा ।
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?'
'हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी ?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?'
'न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था ।'
'किये का जब उपस्थित फल हुआ है,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है,
चला है खोजने तू धर्म रण में,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में ।'
'शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू ।
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू ।
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको,
चढा शायक तुरत संहार इसको ।'
हंसा राधेय, 'हां अब देर भी क्या ?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों ?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?'
थके बहुविध स्वयं ललकार करके,
गया थक पार्थ भी शर मार करके,
मगर, यह वक्ष फटता ही नहीं है,
प्रकाशित शीश कटता ही नहीं है ।
शरों से मृत्यु झड़ कर छा रही है,
चतुर्दिक घेर कर मंडला रही है,
नहीं, पर लीलती वह पास आकर,
रुकी है भीति से अथवा लजाकर ।
जरा तो पूछिए, वह क्यों डरी है ?
शिखा दुर्द्धर्ष क्या मुझमें भरी है ?
मलिन वह हो रहीं किसकी दमक से ?
लजाती किस तपस्या की चमक से ?
जरा बढ़ पीठ पर निज पाणि धरिए,
सहमती मृत्यु को निर्भीक करिए,
न अपने-आप मुझको खायगी वह,
सिकुड़ कर भीति से मर जायगी वह ।
'कहा जो आपने, सब कुछ सही है,
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं ।'
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