रश्मिरथी : पंचम सर्ग (सम्पूर्ण)

 

पंचम सर्ग (सम्पूर्ण)

 

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,

निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का ।

हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,

कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी ।

 

कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,

रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी ।

संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,

सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा ।

 

जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,

परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।

कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,

नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे ।

 

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,

कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में ।

'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?

सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?

 

'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,

सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?

सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,

अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?

 

दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,

पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,

बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?

 

'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?

समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?

हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,

है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?

 

गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,

धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं ।

तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?

मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?

 

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,

गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी ।

तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं

सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं ।

 

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?

किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?

माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है

बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।

 

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?

उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?

किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,

इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

 

चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,

बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।

सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,

सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर ।

 

उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,

सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी ।

आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,

कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी ।

 

दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,

थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर ।

लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,

खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे ।

 

राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,

था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये ।

तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,

दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था ।

 

मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,

हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर ।

अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,

हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले ।

 

या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,

हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,

अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,

मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर ।

 

सुत की शोभा को देख मोद में फूली,

कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली ।

भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,

वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को ।

 

आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला,

कुन्ती को सम्मुख देख वितन हो बोला,

"पद पर अन्तर का भक्ति-भाव धरता हूँ,

राधा का सुत मैं, देवि ! नमन करता हूँ

 

"हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आयी हैं ?

मेरे निमित्त आदेश कौन लायी हैं ?

यह कुरूक्षेत्र की भूमि, युद्ध का स्थल है,

अस्तमित हुआ चाहता विभामण्डल है।

 

"सूना, औघट यह घाट, महा भयकारी,

उस पर भी प्रवया आप अकेली नारी।

हैं कौन ? देवि ! कहिये, क्या काम करूँ मैं ?

क्या भक्ति-भेंट चरणों पर आन धरूँ मैं ?

 

सुन गिरा गूढ़ कुन्ती का धीरज छूटा,

भीतर का क्लेश अपार अश्रु बन फूटा।

विगलित हो उसने कहा काँपते स्वर से,

"रे कर्ण ! बेध मत मुझे निदारूण शर से।

 

"राधा का सुत तू नहीं, तनय मेरा है,

जो धर्मराज का, वही वंश तेरा है।

तू नहीं सूत का पुत्र, राजवंशी है,

अर्जुन-समान कुरूकुल का ही अंशी है।

 

"जिस तरह तीन पुत्रों को मैंने पाया,

तू उसी तरह था प्रथम कुक्षि में आया।

पा तुझे धन्य थी हुई गोद यह मेरी,

मैं ही अभागिनी पृथा जननि हूँ तेरी।

 

"पर, मैं कुमारिका थी, जब तू आया था,

अनमोल लाल मैंने असमय पाया था।

अतएव, हाय ! अपने दुधमुँहे तनय से,

भागना पड़ा मुझको समाज के भय से

 

"बेटा, धरती पर बड़ी दीन है नारी,

अबला होती, सममुच, योषिता कुमारी।

है कठिन बन्द करना समाज के मुख को,

सिर उठा न पा सकती पतिता निज सुख को।

 

"उस पर भी बाल अबोध, काल बचपन का,

सूझा न शोध मुझको कुछ और पतन का।

मंजूषा में धर तुझे वज्र कर मन को,

धारा में आयी छोड़ हृदय के धन को।

 

"संयोग, सूतपत्नी ने तुझको पाला,

उन दयामयी पर तनिक न मुझे कसाला।

ले चल, मैं उनके दोनों पाँव धरूँगी,

अग्रजा मान कर सादर अंक भरूँगी।

 

"पर एक बात सुन, जो कहने आयी हूँ,

आदेश नहीं, प्रार्थना साथ लायी हूँ।

कल कुरूक्षेत्र में जो संग्राम छिड़ेगा,

क्षत्रिय-समाज पर कल जो प्रलय घिरेगा।

 

"उसमें न पाण्डवों के विरूद्ध हो लड़ तू,

मत उन्हें मार, या उनके हाथों मत तू।

मेरे ही सुत मेरे सुत को ह मारें;

हो क्रुद्ध परस्पर ही प्रतिशोध उतारें।

 

"यह विकट दृश्य मुझसे न सहा जायेगा,

अब और न मुझसे मूक रहा जायेगा।

जो छिपकर थी अबतक कुरेदती मन को,

बतला दूँगी वह व्यथा समग्र भुवन को।

 

भागी थी तुझको छोड़ कभी जिस भय से,

फिर कभी न हेरा तुझको जिस संशय से,

उस जड़ समाज के सिर पर कदम धरूँगी,

डर चुकी बहुत, अब और न अधिक डरूँगी।

 

"थी चाह पंक मन को प्रक्षालित कर लूँ,

मरने के पहले तुँझे अंक में भर लूँ।

वह समय आज रण के मिस से आया है,

अवसर मैंने भी क्या अद्भुत पाया है !

 

बाज़ी तो मैं हार चुकी कब हो ही,

लेकिन, विरंचि निकला कितना निर्मोही !

तुझ तक न आज तक दिया कभी भी आने,

यह गोपन जन्म-रहस्य तुझे बतलाने।

 

"पर पुत्र ! सोच अन्यथा न तू कुछ मन में,

यह भी होता है कभी-कभी जीवन में,

अब दौड़ वत्स ! गोदी में वापस आ तू,

आ गया निकट विध्वंस, न देर लगा तू।

 

"जा भूल द्वेष के ज़हर, क्रोध के विष को,

रे कर्ण ! समर में अब मारेगा किसको ?

पाँचों पाण्डव हैं अनुज, बड़ा तू ही है

अग्रज बन रक्षा-हेतु खड़ा तू ही है।

 

"नेता बन, कर में सूत्र समर का ले तू,

अनुजों पर छत्र विशाल बाहु का दे तू,

संग्राम जीत, कर प्राप्त विजय अति भारी।

जयमुकुट पहन, फिर भोग सम्पदा सारी।

 

"यह नहीं किसी भी छल का आयोजन है,

रे पुत्र। सत्य ही मैंने किया कथन है।

विश्वास न हो तो शपथ कौन मैं खाऊँ ?

किसको प्रमाण के लिए यहाँ बुलवाऊँ ?

 

"वह देख, पश्चिमी तट के पास गगन में,

देवता दीपते जो कनकाभ वसन में,

जिनके प्रताप की किरण अजय अद्भूत है,

तू उन्हीं अंशुधर का प्रकाशमय सुत है।"

 

रूक पृथा पोंछने लगी अश्रु अंचल से,

इतने में आयी गिरा गगन-मण्डल से,

"कुन्ती का सारा कथन सत्य कर जानो,

माँ की आज्ञा बेटा ! अवश्य तुम मानो।"

 

यह कह दिनेश चट उतर गये अम्बर से,

हो गये तिरोहित मिलकर किसी लहर से।

मानो, कुन्ती का भार भयानक पाकर,

वे चले गये दायित्व छोड़ घबराकर।

 

डूबते सूर्य को नमन निवेदित करके,

कुन्ती के पद की धूल शीश पर धरके।

राधेय बोलने लगा बड़े ही दुख से,

"तुम मुझे पुत्र कहने आयीं किस मुख से ?

 

"क्या तुम्हें कर्ण से काम ? सुत है वह तो,

माता के तन का मल, अपूत है वह तो।

तुम बड़े वंश की बेटी, ठकुरानी हो,

अर्जुन की माता, कुरूकुल की रानी हो।

 

"मैं नाम-गोत्र से हीन, दीन, खोटा हूँ

सारथीपुत्र हूँ मनुज बड़ा छोटा हूँ।

ठकुरानी ! क्या लेकर तुम मुझे करोगी ?

मल को पवित्र गोदी में कहाँ धरोगी ?

 

"है कथा जन्म की ज्ञात, न बात बढ़ाओ

मन छेड़-छेड़ मेरी पीड़ा उकसाओ।

हूँ खूब जानता, किसने मुझे जना था,

किसके प्राणों पर मैं दुर्भार बना था।

 

"सह विविध यातना मनुज जन्म पाता है,

धरती पर शिशु भूखा-प्यासा आता है;

माँ सहज स्नेह से ही प्रेरित अकुला कर,

पय-पान कराती उर से लगा कर।

 

"मुख चूम जन्म की क्लान्ति हरण करती है,

दृग से निहार अंग में अमृत भरती है।

पर, मुझे अंक में उठा न ले पायीं तुम,

पय का पहला आहार न दे पायीं तुम।

 

"उल्टे, मुझको असहाय छोड़ कर जल में,

तुम लौट गयी इज़्ज़त के बड़े महल में।

मैं बचा अगर तो अपने आयुर्बल से,

रक्षा किसने की मेरी काल-कवल से ?

 

"क्या कोर-कसर तुमने कोई भी की थी ?

जीवन के बदले साफ मृत्यु ही दी थी।

पर, तुमने जब पत्थर का किया कलेजा,

असली माता के पास भाग्य ने भेजा।

 

"अब जब सब-कुछ हो चुका, शेष दो क्षण हैं,

आख़िरी दाँव पर लगा हुआ जीवन है,

तब प्यार बाँध करके अंचल के पट में,

आयी हो निधि खोजती हुई मरघट में।

 

"अपना खोया संसार न तुम पाओगी,

राधा माँ का अधिकार न तुम पाओगी।

छीनने स्वत्व उसका तो तुम आयी हो,

पर, कभी बात यह भी मन में लायी हो ?

 

"उसको सेवा, तुमको सुकीर्ति प्यारी है,

तु ठकुरानी हो, वह केवल नारी है।

तुमने तो तन से मुझे काढ़ कर फेंका,

उसने अनाथ को हृदय लगा कर सेंका।

 

"उमड़ी न स्नेह की उज्जवल धार हृदय से,

तुम सुख गयीं मुझको पाते ही भय से।

पर, राधा ने जिस दिन मुझको पाया था,

कहते हैं, उसको दूध उतर आया था।

 

"तुमने जनकर भी नहीं पुत्र कर जाना,

उसने पाकर भी मुझे तनय निज माना।

अब तुम्हीं कहो, कैसे आत्मा को मारूँ ?

माता कह उसके बदलें तुम्हें पुकारूँ ?

 

"अर्जुन की जननी ! मुझे न कोई दुख है,

ज्यों-त्यों मैने भी ढूँढ लिया निज सुख है।

जब भी पिछे की ओर दृष्टि जाती है,

चिन्तन में भी यह बात नहीं आती है।

 

"आचरण तुम्हारा उचित या कि अनुचित था,

या असमय मेरा जन्म न शील-विहित था !

पर एक बात है, जिसे सोच कर मन में,

मैं जलता ही आया समग्र जीवन में,

 

"अज्ञातशीलकुलता का विघ्न न माना,

भुजबल को मैंने सदा भाग्य कर जाना।

बाधाओं के ऊपर चढ़ धूम मचा कर,

पाया सब-कुछ मैंने पौरूष को पाकर।

 

"जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी,

आया बनकर कंगाल, कहाया दानी।

दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे,

सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।

 

"पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ?

मुझ वीर पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ?

जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से,

सम्बन्ध तोड़ भगी दुधमुँहे तनय से।

 

"मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही,

जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही।

क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा,

पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा।

 

"था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में,

देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ?

शायद यह छोटी बात-राजसुख पाओ,

वर किसी भूप को तुम रानी कहलाओ।

 

"सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में,

कहलाओ साध्वी, सती वाम भूतल में।

पाओ सुत भी बलवान, पवित्र, प्रतापी,

मुझ सा अघजन्मा नहीं, मलिन, परितापी।

 

"सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,

कुछ भी न गँवाया तुमने मुझे गँवा कर।

पर अम्बर पर जिनका प्रदीप जलता है,

जिनके अधीन संसार निखिल चलता है

 

"उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा,

कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा होगा।

धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना,

माँ का हो वज्र-कठोर दृश्य वह सहना।

 

"फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में,

जातक असंग का जलना अमित दुखों में।

हम दोनों जब मर कर वापस जायेंगे,

ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयेंगे।

 

"जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर,

नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर-

अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में,

हम भली-भाँति रक्षित हैं पटावरण में !

 

"पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी,

देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी।

सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है,

सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है।

 

"यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो,

कालिमा लगी हो, उसमें कोई मल हो,

तो रह जाता क्या मूल्य हमारी जय का,

जग में संचित कलुषित समृद्धि-समुदय का ?

 

"पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे,

तुम देख नहीं पायीं जीवन के आगे।

देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को,

देखा केवल अपने क्षण-भंगुर सुख को।

 

"विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको,

गोदी में नन्हाँ दान मिला जब तुमको,

क्यो नहीं वीर-माता बन आगें आयीं ?

सबके समक्ष निर्भय होकर चिल्लायीं ?

 

"सुन लो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी,

सुतवती हो गयी मैं अनब्याही नारी।

अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में

या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में।

 

"पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी,

मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँगी।

यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फल है,

जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्बल है।

 

"सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता,

कुत्सा, कलंक के सिवा और क्या लेता ?

उड़ जाती रज-सी ग्लानि वायु में खुल कर,

तुम हो जातीं परिपूत अनल में घुल कर।

 

"शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,

शायद, घिरते दुख के कराल घन तुम पर।

शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,

शायद, चल देना पड़ता तुम्हें भवन से।

 

"पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,

जग के समक्ष निर्भिक खड़ी रहतीं तुम।

पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,

था किया प्रेम तो बढ़ कर मोल चुकातीं।

 

"भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में,

पालतीं खड़ी हो मुझे कहीं तरू-तल में।

लूटतीं जगत् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,

सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।

 

"मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये,

मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।

पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरूष अवतारी,

यदि उसे मिली होती शुचि गोद तुम्हारी ?

 

"पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,

गत पर विलाप करना जीवन खोना है।

जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँगा ?

लौटूँगा कितनी दूर ? कहाँ जाऊँगा ?

 

"छीना था जो सौभाग्य निदारूण होकर,

देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।

गंगा का जल हो चुका, परन्तु, गरल है

लेना-देना उसका अब, नहीं सरल है।

 

"खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में,

क्यों उसे खोलती हो अब चौथेपन में ?

आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो,

बाकी परिभव भी मुझको ही सहने दो।

 

"पय से वंचित, गोदी से निष्कासित कर,

परिवार, गोत्र, कुल सबसे निर्वासित कर,

फेंका तुमने मुझ भाग्यहीन को जैसे,

रहने तो त्यक्त, विषण्ण आज भी वैसे।

 

"है वृथा यत्न हे देवि ! मुझे पाने का,

मैं नहीं वंश में फिर वापस जाने का।

दी बिता आयु सारी कुलहीन कहा कर,

क्या पाऊँगा अब उसे आज अपना कर ?

 

"यद्यपि जीवन की कथा कलंकमयी है,

मेरे समीप लेकिन, वह नहीं नयी है

जो कुछ तुमने है कहा बड़े ही दुख से,

सुन उसे चुका हूँ मैं केशव के मुख से।

 

"जानें, सहसा तुम सबने क्या पाया है,

जो मुझ पर इतना प्रेम उमड़ आया है।

अब तक न स्नेह से कभी किसी ने हेरा,

सौभाग्य किन्तु, जग पड़ा अचानक मेरा।

 

"मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या है,

असमय में जन्मी हुई प्रीति यह क्या है।

जोड़ने नहीं बिछुड़े वियुक्त कुलजन से,

फोड़ने मुझे आयी हो दुर्योधन से।

 

"सिर पर आकर जब हुआ उपस्थित रण है,

हिल उठा सोच परिणाम तुम्हारा मन है।

अंक मे न तुम मुझको भरने आयी हो,

कुरूपति को कुछ दुर्बल करने आयी हो।

 

"अन्यथा, स्नेह की वेगमयी यह धारा,

तट को मरोड़, झकझोर, तोड़ कर कारा,

भुज बढ़ा खींचने मुझे न क्यों आयी थी ?

पहले क्यों यह वरदान नहीं लायी थी ?

 

"केशव पर चिन्ता डाल, अभय हो रहना,

इस पार्थ भाग्यशाली का भी क्या कहना !

ले गये माँग कर, जनक कवच-कुण्डल को,

जननी कुण्ठित करने आयीं रिपु-बल को।

 

"लेकिन, यह होगा नहीं, देवि ! तुम जाओ,

जैसे भी हो, सुत का सौभाग्य मनाओ,

दें छोड़़ भले ही कभी कृष्ण अर्जुन को,

मैं नहीं छोड़ने वाला दुर्योधन को।

 

"कुरूपति का मेरे रोम-रोम पर ऋण है,

आसान न होना उससे कभी उऋण है।

छल किया अगर, तो क्या जग मंे यश लूँगा ?

प्राण ही नहीं, तो उसे और क्या दूँगा ?

 

"हो चुका धर्म के ऊपर न्यौछावर हूँ,

मैं चढ़ा हुआ नैवेद्य देवता पर हूँ।

अर्पित प्रसून के लिए न यों ललचाओ,

पूजा की वेदी पर मत हाथ बढ़ाओ।"

 

राधेय मौन हो रहा व्यथा निज कह के,

आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के।

कुन्ती के मुख में वृथा जीभ हिलती थी,

कहने को कोई बात नहीं मिलती थी।

 

अम्बर पर मोती-गुथे चिकुर फैला कर,

अंजन उँड़ेल सारे जग को नहला कर,

साड़ी में टाँकें हुए अनन्त सितारे,

थी घूम रही तिमिरांचल निशा पसारे।

 

थी दिशा स्तब्ध, नीरव समस्त अग-जग था,

कुंजों में अब बोलता न कोई खग था,

झिल्ली अपना स्वर कभी-कभी भरती थी,

जल में जब-तब मछली छप-छप करती थी।

 

इस सन्नाटे में दो जन सरित-किनारे,

थे खड़े शिलावत् मूक, भाग्य के मारे।

था सिसक रहा राधेय सोच यह मन में,

क्यों उबल पड़ा असमय विष कुटिल वचन में ?

 

क्या कहे और, यह सोच नहीं पाती थी,

कुन्ती कुत्सा से दीन मरी जाती थी।

आखिर समेट निज मन को कहा पृथा ने,

"आयी न वेदी पर का मैं फूल उठाने।

 

"पर के प्रसून को नहीं, नहीं पर-धन को,

थी खोज रही मैं तो अपने ही तन को।

पर, समझ गयी, वह मुझको नहीं मिलेगा,

बिछुड़ी डाली पर कुसुम न आन खिलेगा।

 

"तब जाती हूँ क्या और सकूँगी कर मैं ?

दूँगी आगे क्या भला और उत्तर मैं ?

जो किया दोष जीवन भर दारूण रहकर,

मेटूँगी क्षण में उसे बात क्या कहकर ?

 

बेटा ! सचमुच ही, बड़ी पापिनी हूँ मैं,

मानवी-रूप में विकट साँपिनी हूँ मैं।

मुझ-सी प्रचण्ड अघमयी, कुटिल, हत्यारी,

धरती पर होगी कौन दूसरी नारी ?

 

"तब भी मैंने ताड़ना सुनी जो तुझसे,

मेरा मन पाता वही रहा है मुझसे।

यश ओढ़ जगत् को तो छलती आयी हूँ

पर, सदा हृदय-तल में जलती आयी हूँ।

 

"अब भी मन पर है खिंची अग्नि की रेखा,

त्यागते समय मैंने तुझको जब देखा,

पेटिका-बीच मैं डाल रही थी तुझको

टुक-टुक तू कैसे ताक रहा था मुझको।

 

"वह टुकुर-टुकुर कातर अवलोकन तेरा,

शिलाभूत सर्पिणी-सदृश मन मेरा,

ये दोनों ही सालते रहे हैं मुझको,

रे कर्ण ! सुनाऊँ व्यथा कहाँ तक तुझको ?

 

"लज्जित होकर तू वृथा वत्स ! रोता है,

निर्घोष सत्य का कब कोमल होता है !

धिक्कार नहीं तो मैं क्या और सुनुँगी ?

काँटे बोये थे, कैसे कुसुम चुनूँगी ?

 

"धिक्कार, ग्लानि, कुत्सा पछतावे को ही,

लेकर तो बीता है जीवन निर्मोही।

थे अमीत बार अरमान हृदय में जागे,

धर दूँ उघार अन्तर मैं तेरे आगे।

 

"पर कदम उठा पायी न ग्लानि में भरकर,

सामने न हो पायी कुत्सा से डरकर।

लेकिन, जब कुरूकुल पर विनाश छाया है,

आखिरी घड़ी ले प्रलय निकट आया है।

 

"तब किसी तरह हिम्मत समेट कर सारी,

आयी मैं तेरे पास भाग्य की मारी।

सोचा कि आज भी अगर चूक जाऊँगी,

भीषण अनर्थ फिर रोक नहीं पाऊँगी।

 

"इसलिए शक्तियाँ मन की सभी सँजो कर,

सब कुछ सहने के लिए समुद्यत होकर,

आयी थी मैं गोपन रहस्य बतलाने,

सोदर-वध के पातक से तुझे बचाने।

 

"सो बता दिया, बेटा किस माँ का तू है,

तेरे तन में किस कुल का दिव्य लहू है।

अब तू स्वतन्त्र है, जो चाहे वह कर तू,

जा भूल द्वेष अथवा अनुजों से लड़ तू।

 

"कढ़ गयी कलक जो कसक रही थी मन में,

हाँ, एक ललक रह गयी छिन्न जीवन में,

थे मिले लाल छह-छह पर, वाम विधाता,

रह गयी सदा पाँच ही सुतों की माता।

 

"अभिलाष लिये तो बहुत बड़ी आयी थी,

पर, आस नहीं अपने बल की लायी थी।

था एक भरोसा यही कि तू दानी है,

अपनी अमोघ करूणा का अभिमानी है।

 

"थी विदित वत्स ! तेरी कीर्ति निराली,

लौटता न कोई कभी द्वार से खाली।

पर, मैं अभागिनी ही अंचल फैला कर,

जा रही रिक्त, बेटे से भीख न पाकर।

 

"फिर भी तू जीता रहे, न अपयश जाने,

संसार किसी दिन तुझे पुत्र ! पहचाने।

अब आ, क्षण भर मैं तुझे अंक में भर लूँ,

आखिरी बार तेरा आलिंगन कर लूँ।

 

"ममता जमकर हो गयी शिला जो मन में,

जो क्षरी फूट कर सूख गया था तन में,

वह लहर रहा फिर उर में आज उमड़ कर,

वह रहा हृदय के कूल-किनारे भर कर।

 

"कुरूकुल की रानी नहीं, कुमारी नारी-

वह दीन, हीन, असहाय, ग्लानि की मारी !

सिर उठा आज प्राणों में झाँक रही है,

तुझ पर ममता के चुम्बन में आँक रही है।

 

"इस आत्म-दाह पीड़िता विषण्ण कली को,

मुझमें भुज खोले हुए दग्ध रमणी को,

छाती से सुत को लगा तनिक रोने दे,

जीवन में पहली बार धन्य होने दे।"

 

माँ ने बढ़कर जैसे ही कण्ठ लगाया,

हो उठी कण्टकित पुलक कर्ण की काया।

संजीवन-सी छू गयी चीज कुछ तन में,

बह चला स्निग्ध प्रस्वण कहीं से मन में।

 

पहली वर्षा में मही भींगती जैसे,

भींगता रहा कुछ काल कर्ण भी वैसे।

फिर कण्ठ छोड़ बोला चरणों पर आकर,

"मैं धन्य हुआ बिछुड़ी गोदी को पाकर।

 

पर, हाय, स्वत्व मेरा न समय पर लायीं,

माता, सचमुच, तुम बड़ी देर कर आयीं।

अतएव, न्यास अंचल का ले ने सकूँगा,

पर, तुम्हें रिक्त जाने भी दे न सकूँगा।

 

"की पूर्ण सभी की, सभी तरह अभिलाषा,

जाने दूँ कैसे लेकर तुम्हें निराशा ?

लेकिन, पड़ता हूँ पाँव, जननि! हठ त्यागो,

बन कर कठोर मुझसे मुझको मत माँगो।

 

केवल निमित्त संगर का दुर्योधन है,

सच पूछो तो यह कर्ण-पार्थ का रण है।

छीनो सुयोग मत, मुझे अंक में लेकर,

यश, मुकुट, मान, कुल, जाति, प्रतिष्ठा देकर।

 

"विष तरह-तरह का हँसकर पीता आया,

बस, एक ध्येय के हित मैं जीता आया।

कर विजित पार्थ को कभी कीर्ति पाऊँगा,

अप्रतिम वीर वसुधा पर कहलाऊँगा।

 

"आ गयी घड़ी वह प्रण पूरा करने की,

रण में खुलकर मारने और मरने की।

इस समय नहीं मुझमें शैथिल्य भरो तुम,

जीवन-व्रत से मत मुझको विमुख करो तुम।

 

"अर्जुन से लड़ना छोड़ कीर्ति क्या लूँगा ?

क्या स्वयं आप अपने को उत्तर दूँगा ?

मेरा चरित्र फिर कौन समझ पायेगा ?

सारा जीवन ही उलट-पलट जायेगा।

 

"तुम दान-दान रट रहीं, किन्तु, क्यों माता,

पुत्र ही रहेगा सदा जगत् में दाता ?

दुनिया तो उससे सदा सभी कुछ लेगी,

पर, क्या माता भी उसे नहीं कुछ देगी ?

 

"मैं एक कर्ण अतएव, माँग लेता हूँ,

बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ।

छोडूँगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को,

तोड़ूँगा कैसे स्वयं पुरातन प्रण को ?

 

"पर, अन्य पाण्डवों पर मैं कृपा करूँगा,

पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा।

अब जाओ हर्षित-हृदय सोच यह मन में,

पालूँगा जो कुछ कहा, उसे मैं रण में।"

 

कुन्ती बोली, "रे हठी, दिया क्या तू ने ?

निज को लेकर ले नहीं किया तू ने ?

बनने आयी थी छह पुत्रों की माता,

रह गया वाम का, पर, वाम ही विधाता।

 

"पाकर न एक को, और एक को खोकर,

मैं चली चार पुत्रों की माता होकर।"

कह उठा कर्ण, "छह और चार को भूलो,

माता, यह निश्चय मान मोद में फूलो।

 

"जीते जी भी यह समर झेल दुख भारी,

लेकिन होगी माँ ! अन्तिम विजय तुम्हारी।

रण में कट मर कर जो भी हानि सहेंगे,

पाँच के पाँच ही पाण्डव किन्तु रहेंगे।

 

"कुरूपति न जीत कर निकला अगर समर से,

या मिली वीरगति मुझे पार्थ के कर से,

तुम इसी तरह गोदी की धनी रहोगी,

पुत्रिणी पाँच पुत्रों की बनी रहोगी।

 

"पर, कहीं काल का कोप पार्थ पर बीता,

वह मरा और दुर्योधन ने रण जीता,

मैं एक खेल फिर जग को दिखलाऊँगा,

जय छोड़ तुम्हारे पास चला आऊँगा।

 

"जग में जो भी निर्दलित, प्रताड़ित जन हैं,

जो भी निहीन हैं, निन्दित हैं, निर्धन हैं,

यह कर्ण उन्हीं का सखा, बन्धु, सहचर हैं

विधि के विरूद्ध ही उसका रहा समर है।

 

"सच है कि पाण्डवों को न राज्य का सुख है,

पर, केशव जिनके साथ, उन्हें क्या दुख है ?

उनसे बढ़कर मैं क्या उपकार करूँगा ?

है कौन त्रास, केवल मैं जिसे हरूँगा ?

 

"हाँ अगर पाण्डवों की न चली इस रण में,

वे हुए हतप्रभ किसी तरह जीवन में,

राधेय न कुरूपति का सह-जेता होगा,

वह पुनः निःस्व दलितों का नेता होगा।

 

"है अभी उदय का लग्न, दृश्य सुन्दर है,

सब ओर पाण्डु-पुत्रों की कीर्ति प्रखर है।

अनुकूल ज्योति की घड़ी न मेरी होगी,

मैं आऊँगा जब रात अन्धेरी होगी।

 

"यश, मान, प्रतिष्ठा, मुकुट नहीं लेने को,

आऊँगा कुल को अभयदान देने को।

परिभव, प्रदाह, भ्रम, भय हरने आऊँगा,

दुख में अनुजों को भुज भरने आऊँगा।

 

"भीषण विपत्ति में उन्हें जननि ! अपनाकर,

बाँटने दुःख आऊँगा हृदय लगाकर।

तम में नवीन आभा भरने आऊँगा,

किस्मत को फिर ताजा करने आऊँगा।

 

"पर नहीं, कृष्ण के कर की छाँह जहाँ है,

रक्षिका स्वयं अच्युत की बाँह जहाँ है,

उस भाग्यवान का भाग्य क्षार क्यों होगा ?

सामने किसी दिन अन्धकार क्यों होगा ?

 

"मैं देख रहा हूँ कुरूक्षेत्र के रण को,

नाचते हुए, मनुजो पर, महामरण को।

शोणित से सारी मही, क्लिन्न, लथपथ है,

जा रहा किन्तु, निर्बाध पार्थ का रथ है।

 

"हैं काट रहे हरि आप तिमिर की कारा,

अर्जुन के हित बह रही उलट कर धारा।

शत पाश व्यर्थ रिपु का दल फैलाता है,

वह जाल तोड़ कर हर बार निकल जाता है।

 

"मैं देख रहा हूँ जननि ! कि कल क्या होगा,

इस महासमर का अन्तिम फल क्या होगा ?

लेकिन, तब भी मन तनिक न घबराता है,

उत्साह और दुगुना बढ़ता जाता है।

 

"बज चुका काल का पटह, भयानक क्षण है,

दे रहा निमन्त्रण सबको महामरण है।

छाती के पूरे पुरूष प्रलय झेलेंगे,

झंझा की उलझी लटें खींच खेलेंगे।

 

"कुछ भी न बचेगा शेष अन्त में जाकर,

विजयी होगा सन्तुष्ट तत्व क्या पाकर ?

कौरव विलीन जिस पथ पर हो जायेंगे,

पाण्डव क्या उससे भिन्न राह पायेंगे ?

 

"है एक पन्थ कोई जीत या हारे,

खुद मरे, या कि, बढ़कर दुश्मन को मारे।

एक ही देश दोनों को जाना होगा,

बचने का कोई नहीं बहाना होगा।

 

"निस्सार द्रोह की क्रिया, व्यर्थ यह रण है,

खोखला हमारा और पार्थ का प्रण है।

फिर भी जानें किसलिए न हम रूकते हैं

चाहता जिधर को काल, उधर को झुकतें हैं।

 

"जीवन-सरिता की बड़ी अनोखी गति है,

कुछ समझ नहीं पाती मानव की मति है।

बहती प्रचण्डता से सबको अपनाकर,

सहसा खो जाती महासिन्धु को पाकर।

 

"फिर लहर, धार, बुद्बुद् की नहीं निशानी,

सबकी रह जाती केवल एक कहानी।

सब मिल हो जाते विलय एक ही जल में,

मूर्तियाँ पिघल मिल जातीं धातु तरल में।

 

"सो इसी पुण्य-भू कुरूक्षेत्र में कल से,

लहरें हो एकाकार मिलेंगी जल से।

मूर्तियाँ खूब आपस में टकरायेंगी,

तारल्य-बीच फिर गलकर खो जायेंगी।

 

"आपस में हों हम खरे याकि हों खोटे,

पर, काल बली के लिए सभी हैं छोटे,

छोटे होकर कल से सब साथ मरेंगे,

शत्रुता न जानें कहाँ समेट धरेंगे ?

 

"लेकिन, चिन्ता यह वृथा, बात जाने दो,

जैसा भी हो, कल कल का प्रभाव आने दो

दीखती किसी भी तरफ न उजियाली है,

सत्य ही, आज की रात बड़ी काली है।

 

"चन्द्रमा-सूर्य तम में जब छिप जाते हैं,

किरणों के अन्वेषी जब अकुलाते हैं,

तब धूमकेतु, बस, इसी तरह आता है,

रोशनी जरा मरघट में फैलाता है।"

 

हो रहा मौन राधेय चरण को छूकर,

दो बिन्दू अश्रु के गिर दृगों से चूकर।

बेटे का मस्तक सूँघ, बड़े ही दुख से,

कुन्ती लौटी कुछ कहे बिना ही मुख से।


     रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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