रश्मिरथी (द्वितीय सर्ग) भाग 13
(द्वितीय सर्ग) भाग 13
'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग
करो।
'आह, बुद्धि
कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु
हृदय,
मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने
क्यों, जय?
अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।
जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो
बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।
भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट
जाये,
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट
जाये।'
इस प्रकार कह परशुराम ने
फिरा लिया आनन अपना,
जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा
सपना।
छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।
परशुधर के चरण की धूलि लेकर,
उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा सेविकल, टूटा हुआ-सा,
किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,
चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में,
कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।
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