रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 1)

 

पंचम सर्ग (भाग 1)

 

आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,

निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का ।

हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,

कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी ।

 

कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,

रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी ।

संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,

सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा ।

 

जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,

परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा ।

कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,

नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे ।

 

सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,

कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में ।

'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?

सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?

 

'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,

सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?

सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,

अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?

 

दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,

जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,

पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,

बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?

 

'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी?

समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी?

हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को,

है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को?

 

गांधारी महिमामयी, भीष्म गुरुजन हैं,

धृतराष्ट्र खिन्न, जग से हो रहे विमन हैं ।

तब भी उनसे कहूँ, करेंगे क्या वे?

मेरी मणि मेरे हाथ धरेंगे क्या वे?

 

यदि कहूँ युधिष्ठिर से यह मलिन कहानी,

गल कर रह जाएगा वह भावुक ज्ञानी ।

तो चलूँ कर्ण से हीं मिलकर बात करूँ मैं

सामने उसी के अंतर खोल धरून मैं ।

 

लेकिन कैसे उसके सम्मुख जाऊँगी?

किस तरह उसे अपना मुख दिखलाउंगी?

माँगता विकल हो वस्तु आज जो मन है

बीता विरुद्ध उसके समग्र जीवन है ।

 

क्या समाधान होगा दुष्कृति के कर्म का?

उत्तर दूंगी क्या, निज आचरण विषम का?

किस तरह कहूँगी-पुत्र! गोद में आ तू,

इस जननी पाषाणी का ह्रदय जुड़ा तू?'

 

चिंताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,

बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से ।

सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,

सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर ।


           रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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