रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 4)
सप्तम सर्ग (भाग 4)
जगी, वलिदान की पावन शिखाओ,
समर में आज कुछ करतब दिखाओ ।
नहीं शर ही, सखा सत्कर्म भी हो,
धनुष पर आज मेरा धर्म भी हो ।
मचे भूडोल प्राणों के महल में,
समर डूबे हमारे बाहु-बल में ।
गगन से वज्र की बौछार छूटे,
किरण के तार से झंकार फूटे ।
चलें अचलेश, पारावार डोले;
मरण अपनी पुरी का द्वार खोले ।
समर में ध्वंस फटने जा रहा है,
महीमंडल उलटने जा रहा है ।
अनूठा कर्ण का रण आज होगा,
जगत को काल-दर्शन आज होगा ।
प्रलय का भीम नर्तन आज होगा,
वियद्व्यापी विवर्तन आज होगा ।
विशिख जब छोड़ कर तरकस चलेगा,
नहीं गोविन्द का भी बस चलेगा ।
गिरेगा पार्थ का सिर छिन्न धड़ से,
जयी कुरुराज लौटेगा समर से ।
बना आनन्द उर में छा रहा है,
लहू में ज्वार उठता जा रहा है ।
हुआ रोमांच यह सारे बदन में,
उगे हैं या कटीले वृक्ष तन में ।
अहा ! भावस्थ होता जा रहा हूँ,
जगा हूँ या कि सोता जा रहा हूँ ?
बजाओ, युद्ध के बाजे बजाओ,
सजाओ, शल्य ! मेरा रथ सजाओ ।
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा
अम्बर विशाल,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल ।
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक-समूह ।
हेषा रथाश्व की, चक्र-रोर, दन्तावल
का वृहित अपार,
टंकार धुनुर्गुण की भीम, दुर्मद रणशूरों की पुकार ।
खलमला उठा ऊपर खगोल, कलमला उठा पृथ्वी का तन,
सन-सन कर उड़ने लगे विशिख, झनझना उठी असियाँ झनझन ।
तालोच्च-तरंगावृत बुभुक्षु-सा लहर उठा संगर-समुद्र,
या पहन ध्वंस की लपट लगा नाचने समर में स्वयं रुद्र ।
हैं कहाँ इन्द्र ? देखें, कितना
प्रज्वलित मर्त्य जन होता है ?
सुरपति से छले हुए नर का कैसा प्रचण्ड रण होता है ?
अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण ।
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश ।
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
'रण में क्यों आये आज ?' लोग
मन-ही-मन में पछताते थे,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे ।
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण ।
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण ।
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह ।
गरजा अशङक हो कर्ण, 'शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच
बजा करके ।
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज ।
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर
भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया ।
भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव,
कौतुक से बोला, 'महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव
।
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही,
जान बचाये देता हूं ।
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं ।
'हैं विप्र आप, सेविये धर्म,
तरु-तले कहीं, निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस
महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये ।'
भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, "कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया ।"
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए
प्राण,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन
धर्म का पाल किया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया ।
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