रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 5)
सप्तम सर्ग (भाग 5)
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में ।
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर ।
देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब
इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन,
'रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?'
'संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है ।'
हंसकर बोला राधेय, 'शल्य, पार्थ
की भीति उसको होगी,
क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा
प्रीति जिसको होगी ।
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं
।
'पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने
इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन
सहने की है ।
'सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय
इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा
सध्दर्म निभाने को,
सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान ।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को
ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के ।
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी ।'
'समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब
नादानों का हैं,
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं ।
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं ।'
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला 'प्रलाप यह बन्द करो,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो
अपना धनुष धरो ।
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से
दिखायी पडती है,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है ।'
'क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है ।
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो ।'
पार्थ को देख उच्छल-उमंग-पूरित उर-पारावार हुआ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ ।
वोला 'विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया ।
'जिस दिन के लिए किये आये, हम
दोनों वीर अथक साधन,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण ।
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें ।'
'पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा ।
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है ।'
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय,
बोला, 'रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय ।
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं ।'
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया ।
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर
उठा काल-सा अट्टहास,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश ।
बोला, 'शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब
गहन सत्कार रहा;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर
वह बेकार रहा ।
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो ।'
'अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक
तुम्हें पहुंचायेगा,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा ।'
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके ।'
संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द,
मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन ।
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ,
सब लगे पूछने, 'अरे, पार्थ
का क्या सचमुच संहार हुआ ?'
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर
अर्जुन प्रबुध्द;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द ।
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार ।
इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान ।
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी
सेना विस्मय-विमुग्ध,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द ।
रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'
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