रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 11)

 

सप्तम सर्ग (भाग 11)

 

'अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहुंचा,

हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा ।

विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ,

मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ ।'

 

'प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !

जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !

तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूँ,

चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हूँ ।'

 

गगन में बध्द कर दीपित नयन को,

किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को,

लगा शर एक ग्रीवा में संभल के,

उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के !

 

गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !

तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर।

छिटक कर जो उडा आलोक तन से,

हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !

 

उठी कौन्तेय की जयकार रण में,

मचा घनघोर हाहाकार रण में ।

सुयोधन बालकों-सा रो रहा था !

खुशी से भीम पागल हो रहा था !

 

फिरे आकाश से सुरयान सारे,

नतानन देवता नभ से सिधारे ।

छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में,

उदासी छा गयी सारे भुवन में ।

 

अनिल मंथर व्यथित-सा डोलता था,

न पक्षी भी पवन में बोलता था ।

प्रकृति निस्तब्ध थी, यह हो गया क्या ?

हमारी गाँठ से कुछ खो गया क्या ?

 

मगर, कर भंग इस निस्तब्ध लय को,

गहन करते हुए कुछ और भय को,

जयी उन्मत्त हो हुंकारता था,

उदासी के हृदय को फाड़ता था ।

 

युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से,

प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से,

दृगों में मोद के मोती सजाये,

बडे ही व्यग्र हरि के पास आये ।

 

कहा, 'केशव ! बडा था त्रास मुझको,

नहीं था यह कभी विश्वास मुझको,

कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा,

किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा ।'

 

'इसी के त्रास में अन्तर पगा था,

हमें वनवास में भी भय लगा था ।

कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?

न तेरह वर्ष सुख से सो सका था ।'

 

'बली योध्दा बडा विकराल था वह !

हरे! कैसा भयानक काल था वह ?

मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे !

शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !'

 

'मिला कैसे समय निर्भीत है यह ?

हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ?

नहीं यदि आज ही वह काल सोता,

न जानें, क्या समर का हाल होता ?'

 

उदासी में भरे भगवान् बोले,

'न भूलें आप केवल जीत को ले ।

नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है ।

विभा का सार शील पुनीत में है ।'

 

'विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?

विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?

भरी वह जीत के हुङकार में है,

छिपी अथवा लहू की धार में है ?'

 

'हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?

मिला किसको विजय का ताज रण में ?

किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?

चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?'

 

'समस्या शील की, सचमुच गहन है ।

समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है ।

न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है ।

जिसे तजता, उसी को मानता है ।'

 

'मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह ।

धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह ।

तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था,

बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था ।'

 

'हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का,

दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का ।

बडा बेजोड दानी था, सदय था,

युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था ।'

 

'किया किसका नहीं कल्याण उसने ?

दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?

जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर,

मरा वह आज रण में नि:स्व होकर ।'

 

'उगी थी ज्योति जग को तारने को ।

न जन्मा था पुरुष वह हारने को ।

मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित,

सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित ।'

 

'दया कर शत्रु को भी त्राण देकर,

खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर,

गया है कर्ण भू को दीन करके,

मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके ।'

 

'युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह,

विपक्षी था, हमारा काल था वह ।

अहा! वह शील में कितना विनत था ?

दया में, धर्म में कैसा निरत था !'

 

'समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये,

पितामह की तरह  सम्मान करिये ।

मनुजता का नया नेता उठा है ।

जगत् से ज्योति का जेता उठा है !'


                              रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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