रश्मिरथी : पंचम सर्ग (भाग 5)

 

पंचम सर्ग (भाग 5)

"जन्मा लेकर अभिशाप, हुआ वरदानी,

आया बनकर कंगाल, कहाया दानी।

दे दिये मोल जो भी जीवन ने माँगे,

सिर नहीं झुकाया कभी किसी के आगे।

 

"पर हाय, हुआ ऐसा क्यों वाम विधाता ?

मुझ वीर पुत्र को मिली भीरू क्यों माता ?

जो जमकर पत्थर हुई जाति के भय से,

सम्बन्ध तोड़ भगी दुधमुँहे तनय से।

 

"मर गयी नहीं वह स्वयं, मार सुत को ही,

जीना चाहा बन कठिन, क्रुर, निर्मोही।

क्या कहूँ देवि ! मैं तो ठहरा अनचाहा,

पर तुमने माँ का खूब चरित्र निबाहा।

 

"था कौन लोभ, थे अरमान हृदय में,

देखा तुमने जिनका अवरोध तनय में ?

शायद यह छोटी बात-राजसुख पाओ,

वर किसी भूप को तुम रानी कहलाओ।

 

"सम्मान मिले, यश बढ़े वधूमण्डल में,

कहलाओ साध्वी, सती वाम भूतल में।

पाओ सुत भी बलवान, पवित्र, प्रतापी,

मुझ सा अघजन्मा नहीं, मलिन, परितापी।

 

"सो धन्य हुईं तुम देवि ! सभी कुछ पा कर,

कुछ भी न गँवाया तुमने मुझे गँवा कर।

पर अम्बर पर जिनका प्रदीप जलता है,

जिनके अधीन संसार निखिल चलता है

 

"उनकी पोथी में भी कुछ लेखा होगा,

कुछ कृत्य उन्होंने भी तो देखा होगा।

धारा पर सद्यःजात पुत्र का बहना,

माँ का हो वज्र-कठोर दृश्य वह सहना।

 

"फिर उसका होना मग्न अनेक सुखों में,

जातक असंग का जलना अमित दुखों में।

हम दोनों जब मर कर वापस जायेंगे,

ये सभी दृश्य फिर से सम्मुख आयेंगे।

 

"जग की आँखों से अपना भेद छिपाकर,

नर वृथा तृप्त होता मन को समझाकर-

अब रहा न कोई विवर शेष जीवन में,

हम भली-भाँति रक्षित हैं पटावरण में !

 

"पर, हँसते कहीं अदृश्य जगत् के स्वामी,

देखते सभी कुछ तब भी अन्तर्यामी।

सबको सहेज कर नियति कहीं धरती है,

सब-कुछ अदृश्य पट पर अंकित करती है।

 

"यदि इस पट पर का चित्र नहीं उज्जवल हो,

कालिमा लगी हो, उसमें कोई मल हो,

तो रह जाता क्या मूल्य हमारी जय का,

जग में संचित कलुषित समृद्धि-समुदय का ?

 

"पर, हाय, न तुममें भाव धर्म के जागे,

तुम देख नहीं पायीं जीवन के आगे।

देखा न दीन, कातर बेटे के मुख को,

देखा केवल अपने क्षण-भंगुर सुख को।

 

"विधि का पहला वरदान मिला जब तुमको,

गोदी में नन्हाँ दान मिला जब तुमको,

क्यो नहीं वीर-माता बन आगें आयीं ?

सबके समक्ष निर्भय होकर चिल्लायीं ?

 

"सुन लो, समाज के प्रमुख धर्म-ध्वज-धारी,

सुतवती हो गयी मैं अनब्याही नारी।

अब चाहो तो रहने दो मुझे भवन में

या जातिच्युत कर मुझे भेज दो वन में।

 

"पर, मैं न प्राण की इस मणि को छोडूँगी,

मातृत्व-धर्म से मुख न कभी मोडूँगी।

यह बड़े दिव्य उन्मुक्त प्रेम का फल है,

जैसा भी हो, बेटा माँ का सम्बल है।

 

"सोचो, जग होकर कुपित दण्ड क्या देता,

कुत्सा, कलंक के सिवा और क्या लेता ?

उड़ जाती रज-सी ग्लानि वायु में खुल कर,

तुम हो जातीं परिपूत अनल में घुल कर।

 

"शायद, समाज टूटता वज्र बन तुम पर,

शायद, घिरते दुख के कराल घन तुम पर।

शायद, वियुक्त होना पड़ता परिजन से,

शायद, चल देना पड़ता तुम्हें भवन से।

 

"पर, सह विपत्ति की मार अड़ी रहतीं तुम,

जग के समक्ष निर्भिक खड़ी रहतीं तुम।

पी सुधा जहर को देख नहीं घबरातीं,

था किया प्रेम तो बढ़ कर मोल चुकातीं।

 

"भोगतीं राजसुख रह कर नहीं महल में,

पालतीं खड़ी हो मुझे कहीं तरू-तल में।

लूटतीं जगत् में देवि ! कीर्ति तुम भारी,

सत्य ही, कहातीं सती सुचरिता नारी।

 

"मैं बड़े गर्व से चलता शीश उठाये,

मन को समेट कर मन में नहीं चुराये।

पाता न वस्तु क्या कर्ण पुरूष अवतारी,

यदि उसे मिली होती शुचि गोद तुम्हारी ?

 

"पर, अब सब कुछ हो चुका, व्यर्थ रोना है,

गत पर विलाप करना जीवन खोना है।

जो छूट चुका, कैसे उसको पाऊँगा ?

लौटूँगा कितनी दूर ? कहाँ जाऊँगा ?

 

"छीना था जो सौभाग्य निदारूण होकर,

देने आयी हो उसे आज तुम रोकर।

गंगा का जल हो चुका, परन्तु, गरल है

लेना-देना उसका अब, नहीं सरल है।

 

"खोला न गूढ़ जो भेद कभी जीवन में,

क्यों उसे खोलती हो अब चौथेपन में ?

आवरण पड़ा ही सब कुछ पर रहने दो,

बाकी परिभव भी मुझको ही सहने दो।

 

"पय से वंचित, गोदी से निष्कासित कर,

परिवार, गोत्र, कुल सबसे निर्वासित कर,

फेंका तुमने मुझ भाग्यहीन को जैसे,

रहने तो त्यक्त, विषण्ण आज भी वैसे।


              रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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