रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 8)

सप्तम सर्ग (भाग 8)

 

समझ में शल्य की कुछ भी न आया,

हयों को जोर से उसने भगाया ।

निकट भगवान् के रथ आन पहुंचा,

अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?

 

अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है,

अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है ।

न जानें न्याय भी पहचानती है,

कुटिलता ही कि केवल जानती है ?

 

रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका,

चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका,

अबाधित दान का आधार था जो,

धरित्री का अतुल श्रृङगार था जो,

 

क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को,

कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?

रुधिर के पङक में रथ को जकड़ क़र,

गयी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र ।

 

लगाया जोर अश्वों ने न थोडा,

नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोडा ।

वृथा साधन हुए जब सारथी के,

कहा लाचार हो उसने रथी से ।

 

'बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह ।

किसी दु:शक्ति का ही घात है यह ।

जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है,

मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है;'

 

'निकाले से निकलता ही नहीं है,

हमारा जोर चलता ही नहीं है,

जरा तुम भी इसे झकझोर देखो,

लगा अपनी भुजा का जोर देखो ।'

 

हँसा राधेय कर कुछ याद मन में,

कहा, 'हां सत्य ही, सारे भुवन में,

विलक्षण बात मेरे ही लिए है,

नियति का घात मेरे ही लिए है ।

 

'मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब,

धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब,

सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से,

निकाले कौन उसको बाहुबल से ?'

 

उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर,

फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर,

लगा ऊपर उठाने जोर करके,

कभी सीधा, कभी झकझोर करके ।

 

मही डोली, सलिल-आगार डोला,

भुजा के जोर से संसार डोला

न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था,

चला वह जा रहा नीचे धंसा था ।

 

विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर,

शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर,

जगा कर पार्थ को भगवान् बोले _

'खडा है देखता क्या मौन, भोले ?'

 

'शरासन तान, बस अवसर यही है,

घड़ी फ़िर और मिलने की नहीं है ।

विशिख कोई गले के पार कर दे,

अभी ही शत्रु का संहार कर दे ।'

 

श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह,

विजय के हेतु आतुर एषणा यह,

सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन,

विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन ।

 

'नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?

मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?'

हंसे केशव, 'वृथा हठ ठानता है ।

अभी तू धर्म को क्या जानता है ?'

 

'कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह ।

हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह ।

क्रिया को छोड़ चिन्तन में फंसेगा,

उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा ।'

 

भला क्यों पार्थ कालाहार होता ?

वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?

सभी दायित्व हरि पर डाल करके,

मिली जो शिष्टि उसको पाल करके,

 

लगा राधेय को शर मारने वह,

विपद् में शत्रु को संहारने वह,

शरों से बेधने तन को, बदन को,

दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को ।


                            रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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