रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 2)
सप्तम सर्ग (भाग 2)
जगा लो वह निराशा छोड़ करके,
द्विधा का जाल झीना तोड़ करके,
गरजता ज्योति-के आधार ! जय हो,
चरम आलोक मेरा भी उदय हो ।
बहुत धुधुआ चुकी, अब आग फूटे,
किरण सारी सिमट कर आज छुटे ।
छिपे हों देवता ! अंगार जो भी,"
दबे हों प्राण में हुंकार जो भी,
उन्हें पुंजित करो, आकार दो हे !
मुझे मेरा ज्वलित श्रृंगार दो हे !
पवन का वेग दो, दुर्जय अनल दो,
विकर्तन ! आज अपना तेज-बल हूँ दो !
मही का सूर्य होना चाहता हूँ,
विभा का तूर्य होना चाहता हूँ।
समय को चाहता हूँ दास करना,
अभय हो मृत्यु का उपहास करना ।
भुजा की थाह पाना चाहता हूँ,
हिमालय को उठाना चाहता हूँ,
समर के सिन्धु को मथ कर शरों से,
धरा हूँ चाहता श्री को करों से ।
ग्रहों को खींच लाना चाहता हूँ,
हथेली पर नचाना चाहता हूँ ।
मचलना चाहता हूँ धार पर मैं,
हँसा हूँ चाहता अंगार पर मैं।
समूचा सिन्धु पीना चाहता हूँ,
धधक कर आज जीना चाहता हूँ,
समय को बन्द करके एक क्षण में,
चमकना चाहता हूँ हो सघन मैं ।
असंभव कल्पना साकार होगी,
पुरुष की आज जयजयकार होगी।
समर वह आज ही होगा मही पर,
न जैसा था हुआ पहले कहीं पर ।
चरण का भार लो, सिर पर सँभालो;
नियति की दूतियो ! मस्तक झुका लो ।
चलो, जिस भाँति चलने को कहूँ मैं,
ढलो, जिस माँति ढलने को कहूँ मैं ।
न कर छल-छद्म से आघात फूलो,
पुरुष हूँ मैं, नहीं यह बात भूलो ।
कुचल दूँगा, निशानी मेट दूँगा,
चढा दुर्जय भुजा की भेंट दूँगा ।
अरी, यों भागती कबतक चलोगी ?
मुझे ओ वंचिके ! कबतक छलोगी ?
चुराओगी कहाँ तक दाँव मेरा ?
रखोगी रोक कबतक पाँव मेरा ?
अभी भी सत्त्व है उद्दाम तुमसे,
हृदय की भावना निष्काम तुमसे,
चले संघर्ष आठों याम तुमसे,
करूँगा अन्त तक संग्राम तुमसे ।
कहाँ तक शक्ति से वंचित करोगी ?
कहाँ तक सिद्धियां मेरी हरोगी ?
तुम्हारा छद्म सारा शेष होगा,
न संचय कर्ण का नि:शेष होगा ।
कवच-कुण्डल गया; पर, प्राण
तो हैं,
भुजा में शक्ति, धनु पर बाण तो हैं,
गई एकघ्नि तो सब कुछ गया क्या ?
बचा मुझमें नहीं कुछ भी नया क्या ?
समर की सूरता साकार हूँ मैं,
महा मार्तण्ड का अवतार हूँ मैं।
विभूषण वेद-भूषित कर्म मेरा,
कवच है आज तक का धर्म मेरा ।
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