रश्मिरथी : षष्ठ सर्ग (भाग 8)

 

षष्ठ सर्ग (भाग 8)

 

"यह देख, कर्ण की विशिख-वृष्टि

कैस कराल झड़ लाती है ?

गो के समान पाण्डव-सेना

भय-विकल भागती जाती है।

तिल पर भी भूिम न कहीं खड़े

हों जहाँ लोग सुस्थिर क्षण-भर,

सारी रण-भू पर बरस रहे

एक ही कर्ण के बाण प्रखर।

 

"यदि इसी भाँति सब लोग

मृत्यु के घाट उतरते जायेंगे,

कल प्रात कौन सेना लेकर

पाण्डव संगर में आयेंगे ?

है विपद् की घड़ी,

कर्ण का निर्भय, गाढ़, प्रहार रोक।

बेटा ! जैसे भी बने, पाण्डवी

सेना का संहार रोक।"

 

फूटे ज्यों वह्निमुखी पर्वत,

ज्यों उठे सिन्धु में प्रलय-ज्वार,

कूदा रण में त्यों महाघोर

गर्जन कर दानव किमाकार।

सत्य ही, असुर के आते ही

रण का वह क्रम टूटने लगा,

कौरवी अनी भयभीत हुई;

धीरज उसका छूटने लगा।

 

है कथा, दानवों के कर में

थे बहुत-बहुत साधन कठोर,

कुछ ऐसे भी, जिनपर, मनुष्य का

चल पाता था नहीं जोर।

उन अगम साधनों के मारे

कौरव सेना चिग्घार उठी,

ले नाम कर्ण का बार-बार,

व्याकुल कर हाहाकार उठी।

 

लेकिन, अजस्त्र-शर-वृष्टि-निरत,

अनवरत-युद्ध-रत, धीर कर्ण,

मन-ही-मन था हो रहा स्वयं,

इस रण से कुछ विस्मित, विवर्ण।

बाणों से तिल-भर भी अबिद्ध,

था कहीं नहीं दानव का तन;

पर, हुआ जा रहा था वह पशु,

पल-पल कुछ और अधिक भीषण।

 

जब किसी तरह भी नहीं रूद्ध

हो सकी महादानव की गति,

सारी सेना को विकल देख,

बोला कर्ण से स्वयं कुरूपति,

"क्या देख रहे हो सखे ! दस्यु

ऐसे क्या कभी मरेगा यह ?

दो घड़ी और जो देर हुई,

सबका संहार करेगा यह।

 

"हे वीर ! विलपते हुए सैन्य का,

अचिर किसी विधि त्राण करो।

अब नहीं अन्य गति; आँख मूँद,

एकघ्नी का सन्धान करो।

अरि का मस्तक है दूर, अभी

अपनों के शीश बचाओ तो,

जो मरण-पाश है पड़ा, प्रथम,

उसमें से हमें छुड़ाओ तो।"

 

सुन सहम उठा राधेय, मित्र की

ओर फेर निज चकित नयन,

झुक गया विवशता में कुरूपति का

अपराधी, कातर आनन।

मन-ही-मन बोला कर्ण, "पार्थ !

तू वय का बड़ा बली निकला,

या यह कि आज फिर एक बार,

मेरा ही भाग्य छली निकला।"

 

रहता आया था मुदित कर्ण

जिसका अजेय सम्बल लेकर,

था किया प्राप्त जिसको उसने,

इन्द्र को कवच-कुण्डल देकर,

जिसकी करालता में जय का,

विश्वास अभय हो पलता था,

केवल अर्जुन के लिए उसे,

राधेय जुगाये चलता था।

 

वह काल-सर्पिणी की जिह्वा,

वह अटल मृत्यु की सगी स्वसा,

घातकता की वाहिनी, शक्ति

यम की प्रचण्ड, वह अनल-रसा,

लपलपा आग-सी एकघ्नी

तूणीर छोड़ बाहर आयी,

चाँदनी मन्द पड़ गयी, समर में

दाहक उज्जवलता छायी।

 

कर्ण ने भाग्य को ठोंक उसे,

आखिर दानव पर छोड़ दिया,

विह्ल हो कुरूपति को विलोक,

फिर किसी ओर मुख मोड़ लिया।

उस असुर-प्राण को बेध, दृष्टि

सबकी क्षर भर त्रासित करके,

एकघ्नी ऊपर लीन हुई,

अम्बर को उद्धभासित करके।

 

पा धमक, धरा धँस उछल पड़ी,

ज्यों गिरा दस्यु पर्वताकार,

"हा ! हा !" की चारों ओर मची,

पाण्डव दल में व्याकुल पुकार।

नरवीर युधिष्ठिर, नकुल, भीम

रह सके कहीं कोई न धीर,

जो जहाँ खड़े थे, लगे वहीं

करने कातर क्रन्दन गंभीर।

 

सारी सेना थी चीख रही,

सब लोग व्यग्र बिलखाते थे;

पर बड़ी विलक्षण बात !

हँसी नटनागर रोक न पाते थे।

टल गयी विपद् कोई सिर से,

या मिली कहीं मन-ही-मन जय,

क्या हुई बात ? क्या देख हुए

केशव इस तरह विगत-संशय ?

 

लेकिन समर को जीत कर,

निज वाहिनी को प्रीत कर,

वलयित गहन गुन्जार से,

पूजित परम जयकार से,

राधेग संगर से चला,

मन में कहीं खोया हुआ,

जय-घोष की झंकार से ,

आगे कहीं सोया हुआ

 

हारी हुई पाण्डव-चमू में हँस रहे भगवान् थे,

पर जीत कर भी कर्ण के हारे हुए-से प्राण थे

क्या, सत्य ही, जय के लिए केवल नहीं बल चाहिए

कुछ बुद्धि का भी घात; कुछ छल-छद्म-कौशल चाहिए

 

क्या भाग्य का आघात है ;!

कैसी अनोखी बात है ;?

मोती छिपे आते किसी के आँसुओं के तार में,

हँसता कहीं अभिशाप ही आनन्द के उच्चार में।

 

मगर, यह कर्ण की जीवन-कथा है,

नियति का, भाग्य का इंगित वृथा है। 

मुसीबत को नहीं जो झेल सकता,

निराशा से नहीं जो खेल सकता,

पुरूष क्या, श्रृंखला को तोड़ करके,

चले आगे नहीं जो जोर करके ?


                       रचना : रामधारी सिंह 'दिनकर'

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