रश्मिरथी : सप्तम सर्ग (भाग 7)
सप्तम सर्ग (भाग 7)
'तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा,
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या
मुख दिखलाऊंगा ?
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया ।'
'रे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी
।
ये नर-भुजङग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं,
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं ।'
'ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढे ।
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढे ।
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है ।'
'अगला जीवन किसलिए भला, तब हो
द्वेषान्ध बिगाडं मैं ?
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं
मैं ?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न
मेरी पा सकता,
मैं किसी हेतु भी यह कलङक अपने पर नहीं लगा सकता ।'
काकोदर को कर विदा कर्ण, फिर बढ़ा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान ।
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को।
पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी;
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी ।
रह गयी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस,
आखिर, बोले भगवान् सभी को देख व्याकुल हताश ।
'अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण
सारी सेना पर टूट रहा,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह लूट रहा ।
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं,
बस, जिधर सुनो, केवल उसके हुङकार
सुनायी पडते हैं ।'
'कैसी करालता ! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार
!
किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है,
ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है ।'
'इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन,
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं, मैं
आज एक चिर-गूढ वचन ।
कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूं,
मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं ।'
औ' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में,
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर
को रण में ?
मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा,
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा
मानेगा ।'
'यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ
के भी विवस्वान्,
हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान ।
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है;
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है ।'
'कर रहा काल-सा घोर समर, जय का
अनन्त विश्वास लिये,
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर
क्या दिव्य प्रकाश लिये !
जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है,
भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है ।'
'अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो,
अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो ।
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा,
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा ।'
दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर,
गरजा सहसा राधेय, न जाने, किस
प्रचण्ड सुख में विभोर ।
'सामने प्रकट हो प्रलय ! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊंगा,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा ।'
'क्या धमकाता है काल ? अरे,
आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं ।
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को
स्वच्छन्द करूं ।
ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां ।'
'हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल
हों चिंग्घार रहे,
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे,
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण,
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन ।'
'संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो,
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो ।
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा
जहां पर घमासान,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण ।'
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